SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 388
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ||15,17 नवम्बर 2006|| जिनवाणी 389 ४. माल दोष- माल अर्थात् ऊपर की ओर किसी के सहारे मस्तक लगा कर खड़े होना। ५. शबरी दोष- नग्न भिल्लनी के समान दोनों हाथ गुह्य स्थान पर रखकर खड़े होना। ६. वधू दोष- कुलवधू की तरह मस्तक झुकाकर खड़े होना। ७. निगड दोष- बेड़ी पहने हुए पुरुष की तरह दोनों पैर फैला कर अथवा मिलाकर खड़े होना। ८. लम्बोत्तर दोष- अविधि से चोलपट्टे को नाभि के ऊपर और नीचे घुटने तक लम्बा करके खड़े होना। ९. स्तन दोष- मच्छर आदि के भय से अथवा अज्ञानता वश छाती ढककर कायोत्सर्ग करना। १०. उर्द्धिका दोष- एड़ी मिलाकर और पंजों को फैलाकर खड़े रहना अथवा अँगूठे मिलाकर और एड़ी फैलाकर खड़े रहना, उर्द्धिका दोष है। ११. संयती दोष- साध्वी की तरह कपड़े से सारा शरीर ढंक कर कायोत्सर्ग करना। १२. खलीन दोष- लगाम की तरह रजोहरण को आगे रखकर खड़े होना अथवा लगाम से पीड़ित अश्व के समान मस्तक को कभी ऊपर कभी नीचे हिलाना, खलीन दोष है। १३. वायस दोष- कौवे की तरह चंचल चित्त होकर इधर-उधर आँखे घुमाना अथवा दिशाओं की ओर देखना। १४. कपित्थ दोष- षट्पदिका (जू) के भय से चोलपट्टे को कपित्थ की तरह गोलाकार बना कर जंघाओं के बीच दबाकर खड़े होना अथवा मुट्ठी बाँधकर खड़े रहना, कपित्थ दोष है। १५. शीर्षोत्कम्पित दोष- भूत लगे हुए व्यक्ति की तरह सिर धुनते हुए खड़े रहना। १६. मूक दोष- मूक अर्थात् गूंगे आदमी की तरह 'हूँ हूँ' आदि अव्यक्त शब्द करना। १७. अंगुलिका भ्रू दोष- आलापकों की अर्थात् पाठ की आवृत्तियों को गिनने के लिए अंगुली हिलाना तथा दूसरे व्यापार के लिए भौह चला कर संकेत करना। १८. वारुणी दोष- जिस प्रकार तैयार की जाती हुई शराब में से बुड़-बुड़ शब्द निकलता है, उसी प्रकार अव्यक्त शब्द करते हुए खड़े रहना अथवा शराबी की तरह झूमते हुए खड़े रहना। १९. प्रेक्षा दोष- पाठ का चिन्तन करते हुए वानर की तरह ओठों को चलाना। (प्रवचनसारोद्धार) योग शास्त्र के तृतीय प्रकाश में श्री हेमचन्द्राचार्य ने कायोत्सर्ग के इक्कीस दोष बतलाए हैं। उनके मतानुसार स्तंभ दोष, कुड्य दोष, अंगुली दोष और भ्रू दोष चार हैं, जिनका ऊपर स्तम्भकुड्य दोष और अंगुलिका भ्रू दोष नामक दो दोषों में समावेश किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy