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366 जिनवाणी
15,17 नवम्बर 2006|| जीवन के उत्कर्ष का वर्णन पढ़ते हैं- तब इस प्रश्न का उत्तर अपने आप प्राप्त हो जाता है।
__मिथ्याश्रुत का स्वाध्याय मिथ्यात्व से छुटकारा दिला सकता है- तब प्रतिक्रमण (आवश्यक) तो सम्यक् श्रुत है- मिथ्यात्व-अव्रत आदि सभी आस्रवों का त्याग क्यों नहीं करा सकता? एक-एक पाठ को सुनने, सीखने से कितनों के भीतर व्रत ग्रहण की प्रेरणा जगती है। व्रत का स्वरूप ध्यान में आता है, फिर स्वीकृत व्रत को अच्छी तरह पाला जा सकता है। कदाचित् व्रत नहीं भी ले पाया- तब भी स्वाध्याय का लाभ तो मिल ही जाता है- परमेष्ठी विनय-भक्ति के साथ चतुर्थ गुणस्थानवर्ती भी कुछ निर्जरा का लाभ प्राप्त कर ही लेता है।
भूल से विस्मृत होने पर भी नवकार का श्रद्धापूर्वक स्मरण 'सेठ वचन परमाणं' वाक्य के जाप से चोर को सद्गति में ले जा सकता है तो प्रतिक्रमण प्रत्येक व्यक्ति को संसार से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करने वाला होने से जीव को मंजिल तक पहुँचाने वाला बन जाता है।
भात-पानी का विच्छेद किया हो, चोर की चुराई वस्तु ली हो, भण्ड कुचेष्टा की हो आदि कतिपय आचार अव्रती के जीवन को नैतिक बनने में सहकारी बनते हैं, जीवन में अच्छे संस्कारों का बीजारोपण करते
_आगम तो ९ वर्ष वाले को व्रत का अधिकार देता है, किन्तु ४ साल ५ साल आदि के बच्चे को सामायिक व्रत पच्चक्खाते हैं-उपवास भी कराते हैं, प्रतिक्रमण भी सिखाते हैं, उसके पीछे हेतु? उसके संस्कार पवित्र होते हैं। भगवती सूत्र शतक ७ उद्देशक २ से ध्वनित होता है ५ अणुव्रत लिये बिना भी अणुव्रत और ४ शिक्षाव्रत की आराधना हो सकती है। भगवती सूत्र शतक १७ उद्देशक २ में एक भी प्राणी के दण्ड को छोड़ने वाला एकान्त बाल नहीं कहा- अर्थात् श्रद्धा-विवेक सहित सामायिक पच्चक्ख कर प्रतिक्रमण करने वाला एकान्त अव्रती नहीं। सभी देव व नारक अव्रती हैं- तिर्यंच में भी व्रत बिना प्रतिक्रमण का प्रसंग नहीं। बिना अन्य व्रत लिये प्रतिक्रमण के समय सही समझपूर्वक श्रद्धा से सामायिक करने वाला अव्रती नहीं, व्रताव्रती है तथा उसका प्रतिक्रमण स्वाध्याय सहित ज्ञान-दर्शन-चारित्राचारित्र व तप के अतिचारों की विशुद्धि कराने वाला है। अतः अव्रती अथवा अव्रतीप्रायः एक व्रतधारी को भी प्रतिक्रमण करना उपयोगी ही प्रतीत होता है। /जिज्ञासा- प्रतिक्रमण के पाठ बोले बिना कोई अपनी भूल को स्वीकार कर उसमें सुधार का संकल्प ले तो क्या वह भी प्रतिक्रमण की श्रेणि में आता है? समाधान- भगवतीसूत्र शतक २५, उद्देशक ७, औपपातिक सूत्र, स्थानांग सूत्र १०वाँ स्थान आदि में प्रायश्चित्त के १० भेद कहे गये हैं। जीतकल्प आदि व्याख्या-साहित्य में विशद विवेचन में उपलब्ध होता है कि किस-किस के प्रायश्चित्त में क्या-क्या आता है? आलोचना के पश्चात् दूसरा प्रायश्चित्त प्रतिक्रमण बताया गया। 'जं संभरामि जं च न संभरामि' से साधक स्मृत-विस्मृत भूल की निन्दा-गर्दा कर शुद्धि करता है।
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