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________________ 15, 17 नवम्बर 2006 जिनवाणी " 365 उभयकाल आवश्यक करना अनिवार्य है। उत्तराध्ययन के २६ वें अध्ययन में आवश्यक का उल्लेख विद्यमान है, अंतगड के छठे वर्ग में भी सामायिक आदि ११ अंग सीखने का उल्लेख है तो चातुर्याम से पंचमहाव्रत में आने वालों का 'सपडिक्कमणं...' प्रतिक्रमण वाला शब्द... स्पष्ट द्योतित करते हैं कि तीर्थंकर की विद्यमानता में आवश्यक सूत्र था। पूर्वों और अंगों की रचना करने में समय अपेक्षित है, मात्र दिन-दिन के समय में इनकी रचना संभव नहीं, उस समय भी सायंकाल और प्रातः काल गणधर भगवन्त और उनके साथ दीक्षित ४४०० शिष्यों ने प्रतिक्रमण किया। विशेषावश्यक भाष्य में स्थविरकल्प क्रम में शिक्षा पद में सर्वप्रथम आवश्यक सीखने का उल्लेख है । निशीथसूत्र उद्देशक १९ सूत्र १८ - १९ आदि, व्यवहार सूत्र उद्देशक १० अध्ययन विषयक सूत्रों से भी सर्वप्रथम आवश्यक का अध्ययन ध्वनित होता है। बिना जिज्ञासा प्रस्तुति के होने तथा पूर्वों की रचना के भी पूर्व तीर्थंकर प्रणीत होने से उसे अंगप्रविष्ट नहीं कहा जा सकता। अंग प्रविष्ट के अतिरिक्त अन्य अनेक सूत्र भी गणधर रचित मानने में बाधा नहीं, यथा आचारचूला को 'थेरा' रचित कहा- चूर्णिकार ने 'थेरा' का अभिप्राय गणधर ही लिया है। निशीथ भी इसी प्रकार गणधरों की रचना है, पर अनंग प्रविष्ट में आता है। अतः आवश्यक सूत्र को अंग में शामिल करना अनिवार्य नहीं । सभी अंग, कालिक होते हैं, यदि आवश्यक भी इसमें सम्मिलित किया जाता तो उभयकाल अस्वाध्याय में उसका वाचन ही निषिद्ध हो जाता वह नो कालिक-नो उत्कालिक है- ज्ञान के अन्तिम ४ अतिचार आवश्यक सूत्र पर लागू नहीं होते, जबकि अंगप्रविष्ट के मूल पाठ (सुत्तागमे) पर लागू होते हैं। अतः अंगों से बाहर होने पर भी आवश्यक सूत्र के गणधरकृत होने में बाधा नहीं । जिज्ञासा - अव्रती को प्रतिक्रमण क्यों करना चाहिये? समाधान- नन्दीसूत्र में मिथ्याश्रुत के प्रसंग में "... जम्हा ते मिच्छादिट्ठिआ तेहिं चेव समएहिं चोइया समाणा के सपक्खदिट्ठिओ चयंति।..." कई मिथ्यादृष्टि इन ग्रन्थों से ( मिध्याश्रुत से ) प्रेरित होकर अपने मिथ्यात्व को त्याग देते हैं। यह बड़े महत्त्व का उल्लेख है और इससे समझ में आता है कि गुरुदेव ( आचार्यप्रवर श्री हस्तीमल जी म. सा.) प्रत्येक मत के अनुयायियों को स्वाध्याय की प्रेरणा क्यों करते थे । कतिपय लोग समझते 'गीता' पढ़ने आदि- मिथ्याश्रुत की प्रेरणा क्यों कर रहे हैं ? आदि-आदि उत्तराध्ययन के २८वें अध्याय में सम्यक्त्व के प्रसंग में क्रियारुचि का भी उल्लेख हुआ है; और जब सुदर्शन श्रमणोपासक के पूर्वभव में जंघाचरण संत के मुख से उच्चरित 'नमो अरिहंताणं' से पशु चराने वाले के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
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