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________________ ||15,17 नवम्बर 2006 जिनवाणी मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन और परिग्रह से निवृत्त होना, पुनः इनका सेवन न करना आस्रव द्वार प्रतिक्रमण है। २. मिथ्यात्व प्रतिक्रमण- जो तत्त्व में श्रद्धा उत्पन्न नहीं होने देता है और विपरीत श्रद्धा उत्पन्न करता है, वह मिथ्यात्व है। मिथ्यात्व-मोह के उदय के कारण जीव को तत्त्व एवं अतत्त्व का भेद विज्ञान नहीं हो पाता है। वह संसार के विकारों में उलझा रहता है। जैसे मदिरापान के कारण बुद्धि मूर्च्छित हो जाती है। वैसे ही मिथ्यात्व के उदय से आत्मा का विवेक भी विलुप्त हो जाता है। वह अनात्मीय पदार्थों को आत्मीय समझता है। मिथ्यात्व मोहनीय सर्वघाती है। इस मिथ्यात्व के कारण ही पदार्थ के स्वरूप में भ्रान्ति बनी रहती है। वास्तव में मिथ्यात्व संसार-वृद्धि का मूलभूत कारण है। यह स्पष्ट है कि मिथ्यात्व के भेद-प्रभेद के संबंध में भिन्न-भिन्न मत हैं। एक मत के अनुसार मिथ्यात्व के दो भेद हैं -१. अभिगृहीत, २. अनाभिगृहीत । द्वितीय मत के अनुसार मिथ्यात्व के तीन भेद' हैं -१. संशयित, २. आभिग्राहिक, ३. अनाभिग्राहिक । तृतीय अभिमत के अनुसार मिथ्यात्व के पाँच भेद" हैं- १. आभिग्राहिक २. अनाभिग्राहिक ३. सांशयिक ४. आभिनिवेशिक और ५. अनाभोगिक । मिथ्यात्व के जितने भी भेद हैं, वे अपेक्षा-दृष्टि से प्रतिपादित हुए हैं। उपयोग, अनुपयोग या सहसा कारणवश आत्मा के मिथ्यात्व परिणाम में प्राप्त होने पर उससे निवृत्त होना मिथ्यात्व प्रतिक्रमण है। ३. कषाय प्रतिक्रमण- 'कषाय' शब्द की निष्पत्ति 'कष' और 'आय' से हुई है। कष का अर्थ हैसंसार और आय का अभिप्राय है- लाभ। जिससे संसार अर्थात् भव-भ्रमण की अभिवृद्धि होती है, वह कषाय है। कषाय वास्तव में संसार की अभिवृद्धि करता है।“ कषाय का वेग विशेष रूप से प्रबल होता है और वह पुनर्भव के मूल को परिसिंचित करता है।" उसे शुष्क नहीं होने देता है। यदि कषाय का अभाव हो तो जन्म-मृत्यु की परम्परा का विष-वृक्ष स्वयं ही सूख कर नष्ट हो जाता है। कषाय चार प्रकार का है", उनके नाम इस प्रकार हैं-१. क्रोध २. मान ३. माया ४. लोभ संक्षेप में कषाय के दो भेद हैं"- राग और द्वेष । इन दोनों में भी उन चारों का समन्वय हो जाता है। राग,में माया और लोभ इन दोनों का अन्तर्भाव हो जाता है तथा द्वेष में क्रोध एवं मान का समावेश होता है। राग और द्वेष के कारण ही अष्टविध कर्म का बंध होता है। अतएव राग और द्वेष को भाव कर्म कहा गया है। इन दोनों का मूल 'मोह' है। उक्त कथन से यह स्पष्ट है कि केवल संक्षेप-विस्तार के विवक्षा-भेद से जो प्रतिपादन हुआ है, वह समझाने के लिये है। सभी का सार एक ही है कि कषाय वास्तव में आत्मा को मलिन कर देता है, कर्म रंग से जीव को रंग देता है। कषाय-परिणाम से आत्मा को निवृत्त करना ‘कषायप्रतिक्रमण' है। ४. योग प्रतिक्रमण- मन, वचन और काय के निमित्त से आत्मा के प्रदेशों में जो परिस्पन्दन होता है, वह योग है। योग आस्रव है। इससे कर्मो का आगमन होता है। शुभयोग से पुण्य का आस्रव होता है और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
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