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36 जिनवाणी
|15,17 नवम्बर 2006|| प्रवृत्ति हुई है, शुद्ध मन से उसे उन पापों की निन्दा करनी चाहिये। यथार्थ और अयथार्थ दोषों के प्रकट करने की जो इच्छा होती है उसे निन्दा कहा जाता है। स्व-निन्दा जीवन को मांजने के लिये है। पापकर्मों की निन्दा करने के लिये प्रतिक्रमण के अर्थ में - ‘निन्दा' शब्द प्रयुक्त हुआ है। . . ७. गर्हा- निन्दा अपने आप की जाती है। जबकि गर्दा गुरुजनों के समक्ष की जाती है। गुरुओं के समक्ष निःशल्य होकर अपने पापों को प्रकट कर देना अत्यधिक कठिन कार्य है। जिस साधक का आत्मबल प्रबल नहीं होता है वह कदापि गर्दा नहीं कर सकता। दूसरे के समक्ष जो आत्म-निन्दा की जाती है वह गहीं है। गर्दा में पापों के प्रति तीव्र रूप से पश्चात्ताप होता है। गर्दा पाप रूपी विष को उतारने वाला वह गारुड़ी मंत्र है जिसके प्रयोग से साधक पाप के विष से मुक्त हो जाता है। इसलिये प्रतिक्रमण का पर्यायवाची शब्द गिर्हा' है। ८. शुद्धि - शुद्धि का अर्थ है-निर्मलता। जैसे सोने पर लगे हुए मैल को अग्नि में तपाकर विशुद्ध किया जाता है, वैसे ही हृदय के मैल को प्रतिक्रमण कर के दूर किया जाता है। इसलिये उसे 'शुद्धि' कहते हैं।
प्रतिक्रमण के ये पर्यायवाची शब्द भिन्न-भिन्न अर्थों को अभिव्यक्त करते हैं। यद्यपि इन सबका भाव एक है, उनमें कुछ भी अन्तर नहीं है, पर विस्तार की दृष्टि से समझने के लिये पर्यायवाची शब्द नितान्त उपयोगी हैं।
___यह पूर्णतः स्पष्ट है कि शुभ योगों से अशुभ योगों में गये हुए अपने आप को पुनः शुभ योगों में लौटा लाना 'प्रतिक्रमण' है। संसार अभिवृद्धि का कारण राग-द्वेष प्रभृति औदयिक भाव हैं और मोक्ष-प्राप्ति का मूलभूत कारण क्षायिक भाव है। साधक क्षायोपशमिक भाव से औदयिक भाव में जाता है, जो निजभाव नहीं है। तदुपरान्त वह पुनः क्षायोपशमिक भाव में आता है। इस प्रतिकूल गमन को प्रतिक्रमण कहा जाता है। इसके पाँच भेद हैं- पंचविहे पडिक्कमणे पण्णत्ते, तंजहा- आसवदारपडिक्कमणे, मिच्छत्तपडिक्कमणे, कसायपडिक्कमणे, जोगपडिक्कमणे, भावपडिक्कमणे। १. आस्रवद्वार प्रतिक्रमण २. मिथ्यात्व प्रतिक्रमण ३. कषाय प्रतिक्रमण
४. योग प्रतिक्रमण ५. भाव प्रतिक्रमण संक्षेप में इन पंचविध प्रतिक्रमण का स्वरूप वर्णन इस प्रकार से सप्रमाण निरूपित है :१. आस्रवद्वार प्रतिक्रमण- जीव परम-शुद्ध स्वरूपी है, परन्तु अज्ञान के कारण कर्मो का परिसंचय कर रहा है। अतः वह कर्मों का कर्ता है। कर्मों के आगमन का जो मार्ग है, वह आस्रव है। दूसरे शब्दों में कहा जाय तो काय, वचन और मन के क्रिया रूप योग आस्रव है। जैसे घट के निर्माण में मिट्टी कारण है, वृक्ष के लिये बीज निमित्त है, वैसे आत्मा के साथ कर्मो का संयोग होने में कारण ‘आस्रव' है। आस्रव के द्वारा ही शुभाशुभ कर्म आत्मा में प्रविष्ट होते हैं। जिस प्रकार तालाब में नाली के द्वारा जल आता है, वैसे ही आस्रव के द्वारा कर्मरूपी पानी आता है। आस्रव कारण है और कर्मबंध कार्य है। आस्रव के द्वार प्राणातिपात,
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