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________________ 338 जिनवाणी 15, 17 नवम्बर 2006 ४. चौथे महाव्रत में साधुजी स्त्री - संबंधी मैथुन से त्रिकरण त्रियोग से पूर्ण विरत होते हैं, वहीं साध्वी जी पुरुष संबंधी मैथुन से विरत होती हैं। वह मनुष्य, स्त्री, तिर्यंचनी के स्थान पर पुरुष तथा तिर्यंच शब्द बोलेंगी। ५. एषणा समिति में माण्डला के पाँच दोष हैं, जिनमें से एक दोष परिमाण का है । साधुजी के लिए शास्त्रकारों ने ३२ कवल का परिमाण, तो साध्वी जी के लिए २८ कवल का विधान किया है। ६. वचन गुप्ति में स्त्री कथा के स्थान पर पुरुष कथा पढ़ेगी। पाठ में तो यह बात ध्यान में आई है। विधि में अन्तर - श्रमण के लिए कायोत्सर्ग खड़े-खड़े जिन मुद्रा में करने का विधान है, जबकि श्रमणी के लिए कायोत्सर्ग सुखासन में बैठे-बैठे ही करने का विधान है। इस तरह चउवीसत्थव करते समय का कायोत्सर्ग, उसके बाद प्रथम सामायिक का कायोत्सर्ग, पाँचवें आवश्यक का कायोत्सर्ग यह सब बैठेबैठे ही श्रमणी कायोत्सर्ग करती है । विधि में तो और कोई विशेष अन्तर ध्यान में नहीं आता । प्रश्न अपरिग्रह व्रत की ५ भावनाओं का संक्षेप में विवेचन कीजिए । उत्तर पाँचों इन्द्रियों के विषयों पर राग-द्वेष नहीं करना ही पाँचवें महाव्रत की ५ भावनाएँ हैं श्रोत्रेन्द्रिय संयम : प्रथम भावना- प्रिय एवं मनोहर शब्द सुनकर उनमें राग नहीं करना चाहिए। लोगों में बजाए जाने वाले मृदंग, वीणा, बाँसुरी आदि वाद्यों की ध्वनि सुनकर उन पर राग न करे। नट, नर्तक, मल्ल, मुष्टिक के अनेक प्रकार मधुर स्वर सुनकर आसक्त न बने। युवतियों द्वारा नृत्य करने पर उत्पन्न ध्वनि सुनकर साधु रंजित न होवे, लुब्ध नहीं होवे । इसी प्रकार कानों को अरुचिकर लगने वाले अशुभ शब्द सुनाई दें तो द्वेष न करे। आक्रोशकारी, कठोर, अपमानजनक एवं अमनोज्ञ शब्द सुनाई देने पर साधु को रुष्ट नहीं होना चाहिए। शब्द मनोज्ञ तथा अमनोज्ञ होने पर संवृत साधु त्रियोग से गुप्त होकर अन्तर आत्मा से अप्रभावित रहे । चक्षुरिन्द्रिय संयम : दूसरी भावना - सचित्त स्त्री, पुरुष, पशु, अचित्त भवन, आभूषण, ५ वर्णों से सजे चित्र आँखों से देखकर उन पर अनुराग न लावें । सुन्दर मूर्तियों पर मोहित न हों। मन एवं नेत्र को अतिप्रिय लगने वाले प्राकृतिक दृश्य ( वनखण्ड, तालाब, झरना) देखकर साधु उसमें आसक्त न हो। नर्तक आदि मनोहारी रूप देखकर साधु को आसक्त नहीं होना चाहिए। मन को बुरे लगने वाले दृश्य (रोगी, कोढ़ी, विकलांग, बौना, कुबड़ा आदि) अमनोज्ञ पदार्थो को देखकर साधु उनसे द्वेष न करे । साधु चक्षुरिन्द्रिय संबंधी भावना से अपनी अन्तरात्मा को प्रभावित करता हुआ धर्म का आचरण करता रहे। नट, घ्राणेन्द्रिय संयम : तीसरी भावना - उत्तम सुगन्धों में आसक्त नहीं होना चाहिए। जल व स्थल पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
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