SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 334
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जिनवाणी 15, 17 नवम्बर 2006 335 केवलदर्शन में समानता होने पर ४ अघातीकर्म शेष रहने से वे आत्माएँ पूर्णता को प्राप्त नहीं हुई हैं। व्यावहारिक जगत् में जैसे सिक्के कई होने पर भी ५०० के एक नोट की बराबरी नहीं कर सकते । संख्या की दृष्टि से देखा जाए तो ५०० का नोट तो एक ही है और सिक्के बहुत से हैं। पर महत्त्व उन सिक्कों से एक नोट का ज्यादा है। वैसे ही, सिद्धों में गुण संख्या की दृष्टि न्यून हैं, पर गुणात्मक रूप से तो सर्वश्रेष्ठ ही हैं। अरिहंतों के १२ गुण तथा आचार्यों के ३६ गुण संख्या की दृष्टि सेतो ज्यादा हैं, पर अरिहंतों के अष्ट महाप्रातिहार्य के आगे आचार्य की सम्पदा न्यून है और शेष ४ आचार्य के सभी गुण स्वतः ही समाहित हो जाते हैं, जैसे- एक किलोमीटर में कई मिलीमीटर समा जाते हैं। प्रश्न क्या श्रावक को श्रमण सूत्र के ५ पाठों से प्रतिक्रमण करना उचित है ? पक्ष-विपक्ष में तर्कों की समीक्षा कर निष्कर्ष बताइये । उत्तर श्रमण का अर्थ है साधु या साधु प्रधान चतुर्विध संघ १. पूर्व पक्ष - व्यवहार में श्रमण 'साधु' का ही नाम है तथापि भगवंत ने चारों तीर्थों को ही श्रमण संघ के रूप में कहा है। भगवतीसूत्र के २०वें शतक व ८वें उद्देशक में श्रमणसंघ में साधु, साध्वी, श्रावक एवं श्राविका का समावेश है। उत्तरपक्ष- श्रमणसूत्र नाम से ही स्पष्ट है कि श्रमणों का प्रतिक्रमण । 'श्रमण' शब्द आगमिक भाषा में साधु का पर्यायवाची है। किसी भी आगम, टीका, कोष में श्रमण का अर्थ श्रावक देखने में नहीं आया। बल्कि सूत्रकृतांग, ठाणांग, भगवती, अनुयोगद्वार आदि आगमों की अनेक टीकाओं, भाष्यादि में श्रमण का अर्थ साधु किया गया है । सूत्रकृतांग सूत्र के १६वें अध्याय के मूल पाठ से सुस्पष्ट है कि पंचमहाव्रतधारी पापों से विरत मुनि ही 'श्रमण' पद का वाच्य है। अर्द्धमागधी कोष में भी श्रमण का अर्थ साधु ही किया है। अभिधान राजेन्द्र कोष में भी श्रमण का अर्थ श्रावक नहीं किया है। अनेक मूल आगम पाठों एवं अनेक विद्वानों, पूर्वाचार्यो द्वारा निरूपित अर्थ का तिरस्कार करके श्रमण का अर्थ श्रावक करना तीर्थंकर भगवन्तों की आशातना है। कभी-कभी भगवती के २०वें शतक का आधार लेकर “तित्थं पुण चाउवण्णाइणो समणसंघे, तंजा समणा समणीओ, सावया, सावियाओ” इस पाठ का आधार लेकर कहा जाता है कि श्रमण संघ में श्रावक-श्राविका भी सम्मिलित हैं। श्रमण संघ का तात्पर्य है- श्रमण का संघ । भगवान् महावीर को श्रमण कहा गया है- यथा "समणे भगवं महावीरे" भगवान् महावीर के संघ को श्रमण संघ कहा जाता है। श्रमण संघ का एक अन्य अर्थ श्रमण प्रधान संघ है। श्रावक को ही यदि श्रमण माना जाए तो फिर भगवान् श्रावक को श्रमणोपासक क्यों कहते हैं ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy