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________________ 334 जिनवाणी क्रम का क्या हेतु है ? प्रश्न 'तस्स उत्तरीकरणेणं' में वर्णित कायोत्सर्ग के ५ कारणों उत्तर कायोत्सर्ग हेतु तस्स उत्तरीकरणेणं, पायच्छित्तकरणेणं, विसोहिकरणेणं, विसल्ली करणेणं, पावाणं, कम्माणं निग्घायणट्ठाए ठामि.... ये पाँच कारण प्रतिपादित हैं। उस आत्मा की उत्कृष्टता के लिए अर्थात् ऊपर उठाने के लिए कायोत्सर्ग करना है। शास्त्र में कई स्थानों पर आत्मा के लिए 'वह' और शरीर के लिए 'यह' शब्द प्रयुक्त हुआ है। इन ५ कारणों में कायोत्सर्ग का हेतु प्रकट किया गया है। इनके क्रम को जानने के लिए द्रव्य दृष्टान्त का आलम्बनजैसे १. किसी के पैर में काँटा लग गया । २. उस काँटे की वेदना असह्य हो जाती है और उसको बाहर निकालने की तीव्र भावना जगती है ३. परन्तु गंदे पैर में काँटा नजर नहीं आता, इसलिए उसे पहले जल आदि के द्वारा स्वच्छ किया जाता है । ४. तत्पश्चात् काँटे को बाहर निकाला जाता है । ५. उस काँटे को निकालने पर भी कुछ मवाद - गंदा खून आदि रह जाता है तो उसे भी दबाकर बाहर निकाल दिया जाता है। यही हेतु आध्यात्मिक क्षेत्र में भी घटित होता है- सर्वप्रथम साधक के अन्तर में आत्मा को ऊपर उठाने के भाव जगते हैं जब वह आत्मा को देखता है तो दोषों का दलदल नजर आता है। उस दलदल का कारण उसी के कषाय एवं अशुभ योग हैं। अतः उसके प्रायश्चित्त के भाव जगते हैं। प्रायश्चित्त करने से पुराना दलदल तो कम हुआ, पर झाड़ू के बाद पोचे (पानी की धुलाई) से अधिक स्वच्छता आ जाती है, इसी कारण से कहा - 'विसोहिकरणेणं ।' जब कपड़ा धुलकर स्वच्छ हो जाता है तब उसमें कई दाग दिखते हैं, साधक को भी गहराई से अवलोकन करने पर शल्य दिखाई देते हैं - वही विसल्लीकरणेणं । अब तो शीघ्रातिशीघ्र इन धब्बों की भी शुद्धि अर्थात् शल्यों का निराकरण । कपड़े को धो लेने पर प्रेस द्वारा उसमें और चमक आ जाती है, वैसे ही साधक लेशमात्र रह गये पापकर्मो की शुद्धि के लिए तत्पर होता है। अतः परस्पर सूक्ष्मता की दृष्टि से ही इनका यह क्रम रखा गया है। प्रश्न संख्या की दृष्टि से न्यूनतम गुण वाले गुणात्मक रूप से श्रेष्ठ कैसे ? उत्तर पंच परमेष्ठी में १०८ गुण होते हैं। अरिहंत में १२, सिद्ध में ८, आचार्य में ३६, उपाध्याय में २५, साधु में २७ = कुल १०८ । गुणात्मक दृष्टि से चिन्तन किया जाए तो सबसे श्रेष्ठ सिद्ध होते हैं। संख्या की दृष्टि से देखने पर तो सबसे कम गुण सिद्ध भगवान् में होते हैं। गहराई से अवलोकन व चिन्तन किया जाए तो प्रतीत होता है- महत्त्व संख्या का नहीं है, गुणों की महानता का है । उपाध्याय के २५ गुण सिद्ध भगवान् के अनन्त ज्ञान के आगे बूँद के समान भी नहीं हैं। साधु के २७ गुण, चरणसत्तरी, करणसत्तरी को मिला देने पर भी सिद्धों के आत्मसामर्थ्य के आगे नगण्य हैं। 15, 17 नवम्बर 2006 अरिहंत के १२ गुणों में ८ तो पुद्गलों पर ही आधारित हैं, मात्र ४ ही आत्मिक गुण हैं। यह तो सिद्ध भगवान के गुणों की संख्या से भी कम तथा गुणात्मक दृष्टि से भी न्यून हैं । केवलज्ञान, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
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