SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 310
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 311 || 15,17 नवम्बर 2006 जिनवाणी पच्चक्खाण- निषेध रूप प्रतिज्ञा जैसे कि सावद्य योगों का त्याग करता हूँ अथवा आहार को वोसिराता हूँ। व्रत-करण कोटि के साथ होते हैं। पच्चक्खाण करण कोटि बिना भी होते हैं। व्रत लेने के पाठ के अंत में 'तस्स भंते' से 'अप्पाणं वोसिरामि' आता है। (आहार के) पच्चक्खाण में 'अन्नत्थणाभोगेणं' से वोसिरामि आता है। प्रश्न प्रतिक्रमण करने से क्या आत्मशुद्धि (पाप का धुलना) हो जाती है? प्रतिक्रमण में दैनिक चर्या आदि का अवलोकन किया जाता है। आत्मा में रहे हुए आम्रवद्वार (अतिचारादि) रूप छिद्रों को देखकर रोक दिया जाता है। जिस प्रकार वस्त्र पर लगे मैल को साबुन आदि से साफ किया जाता है उसी प्रकार आत्मा पर लगी अतिचारादि मलिनता को पश्चात्ताप आदि के द्वारा साफ किया जाता है। व्यवहार में भी अपराध को सरलता से स्वीकार करने पर, पश्चात्ताप आदि करने पर अपराध हल्का हो जाता है। जैसे “माफ कीजिए (सॉरी)" आदि कहने पर माफ कर दिया जाता है। उसी प्रकार अतिचारों की निन्दा करने से, पश्चात्ताप करने से आत्मशुद्धि (पाप का धुलना) हो जाती है। दैनिक जीवन में दोषों का सेवन पुनः नहीं करने की प्रतिज्ञा से आत्म-शुद्धि होती है। प्रश्न आवश्यक सूत्र का प्रसिद्ध दूसरा नाम क्या है? उत्तर प्रतिक्रमण सूत्र। प्रश्न आवश्यक सूत्र को प्रतिक्रमण सूत्र क्यों कहा जाता है? कारण कि आवश्यक सूत्र के छः आवश्यकों में से प्रतिक्रमण आवश्यक सबसे बड़ा एवं महत्वपूर्ण है। इसलिये वह प्रतिक्रमण के नाम से प्रचलित हो गया है। दूसरा कारण वास्तव में प्रथम तीन आवश्यक प्रतिक्रमण की पूर्व क्रिया के रूप में और शेष दो आवश्यक उत्तरक्रिया के रूप में किये जाते हैं। प्रतिक्रमण में जावज्जीवाए, जावनियमं तथा जाव अहोरत्तं शब्द कहाँ-कहाँ आते हैं? उत्तर जावज्जीवाए- पहले से आठवें व्रत में व बड़ी संलेखाना के पाठ में। जावनियम- नवमें व्रत में। जाव अहोरत्तं- दसवें व ग्यारहवें व्रत में। आगम कितने प्रकार के व कौन-कौनसे हैं? उत्तर आगम तीन प्रकार के हैं- १. सुत्तागमे (सूत्रागम) २. अत्थागमे (अर्थागम) ३. तदुभयागमे (तदुभयागम) प्रश्न सूत्रागम किसे कहते हैं? उत्तर प्रश्न प्रश्न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy