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||15,17 नवम्बर 2006||
जिनवाणी कर्म बंधन तोड़ के, समता नाता जोड़ के।।
वर्णना है ज्येष्ठ की, कीर्तना प्रभु श्रेष्ठ की...लक्ष्य को पहचान दोष दिखे, पर संसार है, कहाँ संभव है दोष निकालना। जब तक जीना, तब तक सीना। यह तो ऐसे ही चलेगा। विकल्प के अभाव में दोषमुक्ति-हित सार्थक पुरुषार्थ संभव नहीं है। इसीलिये उत्तराध्ययन के २९वें अध्ययन में कहा- चतुर्विंशतिस्तव से दर्शन-विशुद्धि होती है, आस्था जमती है, विश्वास जगता है। अरे! इन्होंने भी अतीतकाल में हम जैसा ही भवभ्रमण किया था, ये भी इन सभी गलतियों को कर चुके हैं, फिर कैसे छुटकारा पाया? हाँ, इन्होंने ममता से मुख मोड़ा, आस्रव से नाता तोड़ा, फिर समता रस में निमग्न बने, वियरयमला बने। भाव विभोर हो जाता है- भक्तिरस से आप्लावित बन जाता है। ‘लोगस्स सूत्र' पद्यमय स्तुति है, अधिकतर गद्य में बोल जाते हैं। दोषमुक्त को देखकर आत्म- उल्लास-आत्म-उत्साह जगा, प्रतिक्रमण का दूसरा आवश्यक पूर्ण हुआ।
चुंगी तन की चुकावना, बीते दिन शुभ भावना। विषय विष की निवारना, संयमी मन पावना।।
दुःख भरा संसार है, क्षमाश्रमण आधार है...लक्ष्य को पहचान ।। पर वह तो चौथे आरे की बात है, महाविदेह क्षेत्र की बात है। भरत क्षेत्र में वर्तमान में ऐसा पुरुषार्थ कहाँ संभव है, आरा कितना खराब है, दुःखम ही तो इसका नाम है। जब चारों ओर एक ही बात है
तस्कर चोर जबाड़ हुँआरी, बन गया इज्जतदार, लाठी जाँ की भैंस न्याय सूफैल्यो भिष्टाचार । आपां धापी लूट कबड़ी, मच रही भया बाजार में.... धर्म-कर्म गयो भाड़ में, राम रहीमा राड़ में।
ए जीवन में करकल रडगी, पेटा रा बौपार में ।। मारवाड़ी (राजस्थानी) कविता के भाव तो आपके ध्यान में आ ही गये होंगे। दूरदर्शन, रेडियो, समाचार पत्र, बाजार और प्रायः अनेक स्थलों से आप परिचित हैं। तब आज के युग का आश्चर्य सामने आता है- 'अप्पकिलंताणं बहुसुभेण' वाह-वाह! जो संचय नहीं करता, जिसका बैंक बैलेन्स नहीं, केवल तन की चुंगी चुकाता है और सर्वहितकारी प्रवृत्ति सहित आत्म-साधना में लीन रहता है- 'जत्ता भे जवणिज्जं च भे' इन्द्रिय और मन जिसके नियंत्रण में हैं, संयम की यात्रा में जो लीन है। विषय-विष का निवारण करके पावन पवित्र मन से आज की विषम परिस्थिति में जो समत्व-साधना में लीन है, क्षमा में श्रम करता है- क्षमाश्रमण है- इस दुःख भरे संसार में सच्चा आधार है। वन्दना आवश्यक में श्रावक नत होता है प्रणत होता है- गुरु चरणों में अवनत होता है। विनय आया, मद गला, अहंकार छूटा, नीच गोत्र का क्षय और उच्च गोत्र का उपार्जन। वीर प्रभु अन्तिम देशना में कह रहे हैं। अहंकृति दोषों का मूल है- उससे छुटकारा होगा तभी तो दोषों से छुटकारा संभव है। इस तरह तीसरा आवश्यक अहंकार छोड़ने का सूचक है।
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