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| 3011 जिनवाणी
||15,17 नवम्बर 2006|| अपने प्रति हो जाता है; कई गुणा होकर भोगना पड़ता है। निज विवेक के प्रकाश में जब जीव इस रहस्य को हृदयंगम करता है तब वह काँप उठता है, सिहर जाता है, प्रतिक्रमण करता है- अपने पर आक्रमण करता है, अपने दोषों से पीड़ित होता है और दोष-समाप्ति के लिये व्याकुल हो जाता है। दोष से, पाप से, व्याकुल बने जीव की उसमें रति समाप्त हो जाती है, वह विरत होता है। उसको आत्मरस की अनुभूति होती है, अब उसमें भीतर के रसवर्द्धन की भावना जागती है और वह उल्लासपूर्वक मर्यादा की पाल बाँधकर अपनी दृढ़ता बढ़ाता है। व्रत मनोबल (Will Power) बढ़ाने का सुन्दर साधन है। व्रती जीव संवर-निर्जरा करता है, कदाचित् अनाभोग, प्रमाद, अपरिहार्यता से स्खलना हो जाती है तो उसकी शुद्धि के लिये आवश्यक करता है, प्रतिक्रमण करता है। प्रथम आवश्यक ‘सामायिक' है
पाया है मानव का तन, यतना में करना यतन, लक्ष्य को पहचान । पालना प्रभु के वचन, यति धर्म लवलीन मन, लक्ष्य मोक्ष महान् ।। पाप का परिहार कर, मौनव्रत स्वीकार कर । वासना पर वार कर, योग दुष्ट निवार कर ।।
दृष्टि निज नासाग्र हो, शान्त चित्त एकाग्र हो....लक्ष्य को पहचान ।। सामायिक अर्थात् सावध योग का त्याग, पापकारी योगों को छोड़ना। परन्तु प्रतिक्रमण में प्रथम आवश्यक में कायोत्सर्ग करना होता है, शान्त होना होता है। विशिष्ट साधक नासाग्र दृष्टि रख सकते हैंअन्यथा आँखें मूंदकर अपने दोष देखने होते हैं, कृत अतिचारों का आलोचन- 'आ-मर्यादया समन्तात् लोचनम्' चारों ओर से, मर्यादापूर्वक देखना हम कितना कर पाते हैं? विचार करना है। प्रायः केवल पाठ और अधिक से अधिक शुद्ध पाठ तक ही सीमित रह जाते हैं। चिन्तन करें- क्या कहता है अनुयोगद्वार सूत्र? भावआवश्यक कब? बदलना आत्म-साधना है, प्रतिक्रमण का पाठ उच्चारण मात्र नहीं। अतिक्रमण की खोज करना है तभी प्रतिक्रमण संभव हो सकेगा
प्रथम आवश्यक में ध्यान के समय प्रत्येक पाठ में 'तस्स आलोउं' में अपने दोष या अतिचार देखने का ही उल्लेख है। श्रावक की भूमिका में सोचना है क्या आज ‘रोषवश गाढ़ा बंधन बाँधा' इसकी अपने द्वारा खोज हुई? भीतर में स्खलना, दोष, अतिक्रमण में व्यथा पैदा हुई? वासना पर वार हुआ? दुष्ट योग का वर्तमान में निवारण हुआ ? एक-एक करके श्रमण के १२५ तथा श्रावक के ९९ अतिचारों का अन्वेषण हुआ? शायद आप कहेंगे तब तो बहुत अधिक समय लग जायेगा। इसीलिये पूज्य गुरुदेव फरमाते थे- प्रतिक्रमण के पूर्व १०-१५ मिनिट आँख मूंदकर खोज कर लें- अपने दिन को, पक्ष को, यावत् वर्ष को देख लें, एक-एक स्खलना ध्यान में आने पर प्रथम आवश्यक में उसकी भलीभाँति निवृत्ति की प्रेरणा प्राप्त हो सकती है।
अतीतकाल काल के दोष वर्तमान की निर्दोषता होने पर ही नजर आ सकते हैं। इसीलिये सामायिक (वर्तमान की) में निर्दोषता के क्षण में दोषों का अन्वेषण करना है।
ममता से मुख मोड़ के, सकल आसव छोड़ के।
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