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________________ 15,17 नवम्बर 2006 जिनवाणी, 288 प्रतिक्रमण याद करने के कुछ लाभ डॉ. दिलीप धींग जो व्यक्ति प्रतिक्रमण कण्ठस्थ कर लेता है, वह जाने-अनजाने अनेक उपयोगी ज्ञानवर्द्धक आगमिक बातों का जानकार हो जाता है। प्रतिक्रमण मूलतः प्राकृत में है। प्राकृत लोकभाषा है, किन्तु तीर्थंकरों की वाणी इसी भाषा में प्रकट हुई। अतः उसका उच्चारण मंगलकारी माना जाता है। जहाँ नियमित सामायिकप्रतिक्रमण की आराधना होती है, वहाँ अनेक अशुभ टल जाते हैं। केवल प्रथम सामायिक आवश्यक को ही द्वादशांगी का सार और चौदह पूर्व का अर्थपिण्ड कहा गया है तो छह आवश्यक सहित सम्पूर्ण प्रतिक्रमण का महत्त्व निःसन्देह बहुत अधिक है। जिसे प्रतिक्रमण याद है१. वह सगर्व कह सकता है कि उसे एक आगम कण्ठस्थ है। २. बत्तीस आगमों के नाम उसे कण्ठस्थ हो जाते हैं। ३. वह पंच परमेष्ठी के स्वरूप और उनके गुणों का जानकार हो जाता है। ४. वह छह आवश्यकों का जानकार हो जाता है। ५. वह यह जान जाता है कि अठारह पाप कौनसे होते हैं। ६. उसे मांगलिक (मंगल-पाठ) याद हो जाता है। ७. उसे प्रत्याख्यान का पाठ याद हो जाता है, जिससे वह किसी को भी प्रत्याख्यान करवा सकता है अथवा स्वयं भी प्रत्याख्यान पूर्वक कोई नियम ले सकता है। ८. वह श्रावक के बारह व्रतों (५ अणुव्रत ३ गुणव्रत व ४ शिक्षाव्रत) का जानकार हो जाता है। ९. वह बारह व्रतों का स्वरूप और उनके दोषों (अतिचारों) का जानकार हो जाता है। १०. वह रत्नत्रय (सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन व सम्यक् चारित्र) के स्वरूप को समझ सकता है। प्रतिक्रमण के पाठों में ज्ञान, ध्यान, विनय, अनुशासन, नैतिकता और प्राणिमात्र से मैत्री के संदेशों की अनुगूंज है। प्रतिक्रमण में अनेक विषय समाविष्ट हैं। प्रतिक्रमण जानने वाला कहीं भी विचार व्यक्त करना चाहे तो वह प्रतिक्रमण में से कई तथ्य उद्धृत कर सकता है और अपनी अभिव्यक्ति को प्रभावशाली व प्रामाणिक बना सकता है। अर्थ को समझते हुए प्रतिक्रमण याद किया जाय और उसकी सही रूप से आराधना की जाय तो जीवन में नई रोशनी पैदा होती है। माता-पिता को चाहिये कि वे अपनी संतान को अन्य चीजों के अलावा प्रतिक्रमण भी अवश्य कण्ठस्थ कराएँ। बाल एवं किशोर वय में याद किया गया प्रतिक्रमण जीवन भर की पूँजी बन जायेगा। -ट्रेड हाउस, दूसरी मंजिल, २६, अश्विनी मार्ग, उदयपुर (राज.)३१३००१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
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