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||15,17 नवम्बर 2006||
| जिनवाणी श्रुतज्ञान की दृष्टि से आवश्यक पर निक्षेप दृष्टि से चिन्तन किया गया है। द्रव्यावश्यक और भावावश्यक पर प्रकाश डाला है। महावीर के पूर्वभवों की चर्चा की गई है। महावीर के जीवन में जो भी उपसर्ग आये, उनका सविस्तृत निरूपण चूर्णि में हुआ है। नियुक्ति की तरह निह्नववाद का भी निरूपण है। उसके पश्चात् द्रव्य पर्याय, नयदृष्टि से सामायिक के भेद, उसका स्वामी, उसकी प्राप्ति का क्षेत्र, काल, दिशा, सामायिक करने वाला, उसकी प्राप्ति के हेतु, आनन्द, कामदेव का दृष्टान्त, अनुकम्पा, इन्द्रनाग, पुण्यशाल, शिवराजर्षि, गंगदत्त, दशार्णभद्र, इलापुत्र आदि के दृष्टान्त दिये हैं। समभाव की महत्ता का प्रतिपादन करने के लिये दमदत्त एवं मैतार्य का दृष्टान्त दिया है। समास, संक्षेप और अनवद्य के लिये धर्मरुचि व प्रत्याख्यान के लिये तेतलीपुत्र का दृष्टान्त देकर विषय को स्पष्ट किया गया है।
चतुर्थ अध्ययन में प्रतिक्रमण की परिभाषा प्रतिक्रामक, प्रतिक्रमण, प्रतिक्रान्तव्य इन तीन दृष्टियों से की गई है। प्रतिचरणा, परिहरणा, वारणा, निवृत्ति, निन्दा, गर्हा, शुद्धि और आलोचना पर विवेचना करते हुए उदाहरण भी प्रस्तुत किये हैं। कायिक, वाचिक, मानसिक, अतिचार, ईर्यापथिकी विराधना, प्रकाम शय्या, भिक्षाचर्या, स्वाध्याय आदि में लगने वाले अतिचार, चार विकथा, चार ध्यान, पाँच क्रिया, पाँच कामगुण, पाँच महाव्रत, पाँच समिति आदि का प्रतिपादन किया है। शिक्षा के ग्रहण और आसेवन ये दो भेद किए हैं।
कायोत्सर्ग के प्रशस्त व अप्रशस्त ये दो भेद हैं और फिर उच्छ्रित आदि नौ भेद हैं। श्रुत, सिद्ध की स्तुति पर प्रकाश डालकर क्षामणा की विधि पर विचार किया है। अन्त में कायोत्सर्ग के दोष, फल आदि पर भी प्रकाश डाला गया है।
आवश्यकचूर्णि जिनदासगणी महत्तर की एक महनीय कृति है। आवश्यकनियुक्ति में आये हुए सभी विषयों पर चूर्णि में विस्तार के साथ स्पष्टता की गई है। इसमें अनेक पौराणिक, ऐतिहासिक महापुरुषों के जीवन उट्टङ्कित किये गये हैं, जिनका ऐतिहासिक और सांस्कृतिक दृष्टि से अत्यधिक महत्त्व है। टीका साहित्य
नियुक्ति में आगमों के शब्द की व्युत्पत्ति और व्याख्या है। भाष्यसाहित्य में विस्तार से आगमों के गंभीर भावों का विवचेन है। चूर्णिसाहित्य में निगूढ़ भावों को लोक-कथाओं के आधार से समझाने का प्रयास है तो टीका साहित्य में आगमों का दार्शनिक दृष्टि से विश्लेषण है। टीकाकारों ने प्राचीन नियुक्ति, भाष्य और चूर्णि साहित्य का तो अपनी टीकाओं में प्रयोग किया ही है साथ ही नये-नये हेतुओं द्वारा विषय को और अधिक पुष्ट बनाया है। उनकी प्रस्तुत टीका उनके पश्चात् कोट्याचार्य ने पूर्ण की। इसका संकेत कोट्याचार्य ने छठे गणधरवाद के अन्त में दिया है।
संस्कृत टीकाकारों में आचार्य हरिभद्र का नाम गौरव के साथ लिया जा सकता है। उनका सत्तासमय विक्रम संवत् ७५७ से ८२७ का है। उन्होंने आवश्यकनियुक्ति पर भी वृत्ति लिखी। प्रस्तुत वृत्ति को देखकर विज्ञों ने यह अनुमान किया है कि आचार्य हरिभद्र ने आवश्यक सूत्र पर दो वृत्तियाँ लिखी थीं। वर्तमान
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