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________________ 280 || जिनवाणी ||15,17 नवम्बर 2006|| अर्थाधिकार पर विचार किया गया है। सामायिक पर चिन्तन करते हुए कहा है- समभाव ही सामायिक का लक्षण है। सभी द्रव्यों का आधार आकाश है, वैसे ही सभी सद्गुणों का आधार सामायिक है। सामायिक के दर्शन, ज्ञान और चारित्र ये तीन भेद हैं। किसी महानगर में प्रवेश करने के लिये अनेक द्वार होते हैं, वैसे ही सामायिक अध्ययन के उपक्रम, निक्षेप, अनुगम और नय- ये चार द्वार हैं। इन चारों द्वारों का विस्तार से निरूपण किया गया है। आठों कर्म प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थितियों के रहते हुए जीव को सामायिक का लाभ नहीं हो सकता। कषाय के उदय के कारण दर्शन आदि सामायिक प्राप्त नहीं हो सकती। यदि कदाचित् प्राप्त हो भी गई तो वह पुनः नष्ट हो जाती है। सामायिक में सावध योग का त्याग होता है। वह इत्वर और यावत्कथिक के रूप में दो प्रकार की हैं। इत्वर सामायिक अल्पकालीन होती है और यावत्कथिक सामायिक जीवनपर्यन्त के लिये। भाष्यकार ने सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसंपराय और यथाख्यात चारित्र का विस्तार से विवेचन किया है। सामायिक चारित्र का उद्देश, निर्देश, निर्गम, क्षेत्र, काल, पुरुष, कारण, प्रत्यय, लक्षण, नय, समवतार, अनुमत, किम्, कतिविध, कस्य, कुत्र, केषु, कथम्, कियच्चिर, कति, सान्तर, अविरहित, भव, आकर्ष, स्पर्शन और निरुक्ति, इन छब्बीस द्वारों से वर्णन किया गया है। सामायिक संबंधी जितनी भी महत्त्वपूर्ण बातें हैं, वे सभी इन द्वारों में समाविष्ट हो गई हैं। निह्नववाद पर विस्तार से चर्चा है। अन्त में ‘करेमि भंते' आदि सामायिक सूत्र के मूल पदों पर विचार किया गया है। ___ भाष्यसाहित्य में विशेषावश्यकभाष्य का अनूठा स्थान है। विशेषावश्यकभाष्य आचार्य जिनभद्र की अन्तिम रचना है। उन्होंने इस पर स्वोपज्ञवृत्ति भी लिखनी प्रारम्भ की थी, किन्तु पूर्ण होने से पहले ही उनका आयुष्य पूर्ण हो गया था, जिससे वह वृत्ति अपूर्ण ही रह गई। विज्ञों का अभिमत है कि जिनभद्रगणी का उत्तरकाल विक्रम संवत् ६५० से ६६० के आस-पास होना चाहिये। चूर्णिसाहित्य नियुक्ति और भाष्य की रचना के पश्चात् जैन मनीषीयों के अन्तर्मानस में आगमों पर गद्यात्मक व्याख्या साहित्य लिखने की भावना उत्पन्न हुई। उन्होंने शुद्ध प्राकृत में और संस्कृत मिश्रित प्राकृत में व्याख्याओं की रचना की, जो आज चूर्णिसाहित्य के रूप में विश्रुत है। चूर्णिसाहित्य के निर्माताओं में जिनदासगणी महत्तर का मूर्धन्य स्थान है। उन्होंने सात चूर्णियाँ लिखीं। उसमें आवश्यकसूत्र चूर्णि एक महत्त्वपूर्ण रचना है। यह चूर्णि नियुक्ति के अनुसार लिखी गई है, भाष्य गाथाओं का उपयोग भी यत्र-तत्र हुआ है। मुख्य रूप से भाषा प्राकृत है किन्तु संस्कृत के श्लोक व गद्य पंक्तियाँ भी उद्धृत की गई हैं। भाषा प्रवाहयुक्त है। शैली में लालित्य व ओज है। ऐतिहासिक कथाओं की प्रचुरता है। यह चूर्णि अन्य चूर्णियों से विस्तृत है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
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