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जिनवाणी
15, 17 नवम्बर 2006
दूसरा अध्ययन चतुर्विंशतिस्तव का है। इसमें नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इन छह निक्षेपों की दृष्टि से प्रकाश डाला गया
है
तृतीय अध्ययन वन्दना का है। चितिकर्म, कृतिकर्म, पूजाकर्म और विनयकर्म, ये वंदना के पर्यायवाची हैं। वन्दना किसे करनी चाहिये? किसके द्वारा होनी चाहिये? कब होनी चाहिये ? कितनी बार होनी चाहिये? कितनी बार सिर झुकना चाहिये ? कितने आवश्यकों से शुद्धि होनी चाहिये ? कितने दोषों से मुक्ति होनी चाहिये ? वन्दना किसलिये करनी चाहिये ? प्रभृति नौ बातों पर विचार किया गया है। वही श्रमण वन्दनीय है जिसका आचार उत्कृष्ट है और विचार निर्मल है। जिस समय वह प्रशान्त, आश्वस्त और उपशान्त हो, उसी समय वन्दना करनी चाहिये ।
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चतुर्थ अध्ययन का नाम प्रतिक्रमण है। प्रमाद के कारण आत्मभाव से जो आत्मा मिथ्यात्व आदि परस्थान में जाता है, उसका पुनः अपने स्थान में आना प्रतिक्रमण है। प्रतिचरणा, परिहरणा, वारणा, निवृत्ति, निन्दा, गर्हा, शुद्धि- ये प्रतिक्रमण के पर्यायवाची हैं। इनके अर्थ को समझाने के लिये निर्युक्ति में अनेक दृष्टान्त दिये गये हैं। नागदत्त आदि की कथाएँ दी गई हैं। इसके पश्चात् आलोचना, निरपलाप, आपत्ति, दृढ़धर्मता आदि ३२ योगों का संग्रह किया गया है और उन्हें समझाने के लिये महागिरि, स्थूलभद्र, धर्मघोष, सुरेन्द्रदत्त, वारत्तक, वैद्य धन्वन्तरि, करकण्डु, आर्य पुष्पभूति आदि के उदाहरण भी दिये गये हैं। साथ ही स्वाध्याय- अस्वाध्याय के संबंध में भी प्रकाश डाला गया है।
पाँचवें अध्ययन में कायोत्सर्ग का निरूपण है । कायोत्सर्ग और व्युत्सर्ग ये एकार्थवाची हैं। कुछ दोष आलोचना से ठीक होते हैं तो कुछ दोष प्रतिक्रमण से और कुछ दोष कायोत्सर्ग से ठीक होते हैं। कायोत्सर्ग से देह और बुद्धि की जड़ता मिटती है। सुख-दुःख को सहन करने की क्षमता समुत्पन्न होती है । उसमें अनित्य, अशरण आदि द्वादश अनुप्रेक्षाओं का चिन्तन होता है। मन की चंचलता नष्ट होकर शुभ ध्यान का अभ्यास निरन्तर बढ़ता है। ध्यान और कायोत्सर्ग के संबंध में अनेक प्रकार की जानकारी दी गई है जो ज्ञानवर्द्धक है। श्रमण को अपने सामर्थ्य के अनुसार कायोत्सर्ग करना चाहिये । शक्ति से अधिक समय तक कायोत्सर्ग करने से अनेक प्रकार के दोष समुत्पन्न हो सकते हैं । कायोत्सर्ग के समय कपटपूर्वक निद्रा लेना, सूत्र और अर्थ की प्रतिपृच्छा करना, काँटा निकालना, लघुशंका आदि करने के लिये चले जाना उचित नहीं है। इससे उस कार्य के प्रति उपेक्षा प्रकट होती है। कायोत्सर्ग के घोटक आदि १९ दोष भी बताए हैं। जो देहबुद्धि से परे है, वही व्यक्ति कायोत्सर्ग का सच्चा अधिकारी है ।
छठे अध्ययन प्रत्याख्यान का प्रत्याख्यान, प्रत्याख्याता, प्रत्याख्येय, पर्षद, कथनविधि और फल, इन छह दृष्टियों से विवेचन किया गया है। प्रत्याख्यान के नाम, स्थापना, द्रव्य, अदित्सा, प्रतिषेध और भाव, ये छह प्रकार हैं। प्रत्याख्यान की विशुद्धि श्रद्धा, ज्ञान, विनय, अनुभाषणा, अनुपालन और भाव- इन छह प्रकार से होती है। प्रत्याख्यान से आस्रव का निरुन्धन होता है। समता की सरिता में अवगाहन किया जाता है।
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