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15.17 नवम्बर 2006 जिनवाणी, , 265
कषाय का प्रतिक्रमण
श्री सम्पतराज डोसी
जहाँ अतिक्रमण है वहाँ प्रतिक्रमण की आवश्यकता है। जब तक व्यक्ति राग-द्वेष एवं कषायों से युक्त है तब तक अतिक्रमण है । इस अतिक्रमण का प्रतिक्रमण करने पर ही राग-द्वेषादि से रहित हुआ जा सकता है। यही कषाय प्रतिक्रमण है। मिथ्यात्वादि के प्रतिक्रमण का लक्ष्य कषाय का क्षय या उसकी मन्दता है । लेखक ने पाठकों में लक्ष्य के अनुरूप संकल्प जगाने का प्रयास किया है ।
-सम्पादक
'प्रतिक्रमण' शब्द का अर्थ तथा भाव बड़ा गम्भीर एवं सारगर्भित है। इसका दूसरा नाम 'आवश्यक सूत्र' है। अर्थात् प्रत्येक साधक के लिये सुबह एवं शाम अवश्य करणीय है, परन्तु आज के युग में यह प्रायः मात्र औपचारिक तौर पर ही किया जाता है। अन्यथा जैसा इसका अर्थ और भाव है उस प्रकार से पापों का ,
और दोषों का निरीक्षण-परीक्षण करके उन दोषों की बार-बार पुनरावृत्ति को रोकने के लिये दृढ़ संकल्प किया जाये तो जीवन अवश्य विषमता से समता की ओर अग्रसर हो सकता है।
'प्रतिक्रमण' शब्द अतिक्रमण का विलोम शब्द है। अतिक्रमण का अर्थ होता है मर्यादा या सीमा से बाहर चले जाना। इसके विपरीत प्रतिक्रमण का अर्थ होता है अगर मर्यादा या सीमा के बाहर चला गया तो पुनः मर्यादा या सीमा में आ जाना।
प्रतिक्रमण के अर्थ और भाव को समझने के लिए पहले अतिक्रमण के अर्थ एवं भाव को समझना आवश्यक है। अतिक्रमण क्या है और कैसे होता है ?
प्रत्येक आत्मा का स्वभाव हर समय परम सुख एवं पूर्ण शांति में रहने का है। परम सुख (अव्याबाध सुख) और पूर्ण शान्ति के साधन रूप पूर्ण समभाव में रहना अर्थात् राग, द्वेष और मोह रहित वीतराग भाव में रहना आत्मा का असली और निज स्वभाव है। जब तक आत्मा वीतराग भाव अथवा पूर्ण समभाव में रहती है तब तक वह पूर्ण शान्ति और आनन्द में रहती है।
जब तक कोई भी आत्मा राग, द्वेष एवं मोह का पूर्ण नाश नहीं करती तब तक वह पूर्ण सुखी भी नहीं हो सकती। जैसा कि शास्त्रकारों ने कहा है- “दुक्खं हयं जस्स न होइ मोहो"-उत्तराध्ययन ३२.८ । इस मोह के दो रूप होते हैं- राग एवं द्वेष। ये राग एवं द्वेष सभी प्रकार के दुःखों के कारण रूप कर्म के बीज या मूल हैं।
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