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________________ 264 जिनवाणी रहते हैं, तो ऐसी स्थिति में व्यक्ति में सुधार नहीं हो सकता। आत्मसुधार के लिए अपने दोष को स्वीकार कर उसका विश्लेषण करना चाहिए। सोचना चाहिए कि यह दोष अभी भी मैं क्यों करता हूँ? गलत विचार अभी भी मेरे मस्तिष्क में क्यों आता है? क्यों ईर्ष्या, द्वेष, अहंकार एवं लोभ जागते हैं? इस प्रकार आत्म-चिन्तन आवश्यक है । दुनिया में कुछ तो ऐसे लोग भी हैं जो सारी जिन्दगी इस बात को सिद्ध करने में ही लगा देते हैं कि वे गलत नहीं हैं, जबकि वे गलत होते हैं। जिद्दीपन एवं दुराग्रह के कारण व्यक्ति आत्मशुद्धि की ओर अथवा कहें कि प्रतिक्रमण की ओर उन्मुख नहीं हो पाता। अहंकार और लोभ के कारण कभी हम किसी पर क्रोध करते हैं, किसी के साथ छल-कपट करते हैं, किसी को नीचा दिखाने का प्रयास करते हैं। कभी अपने कमजोर पक्ष को भी बलवान बनाने की कोशिश करते हैं। कभी झूठ का सहारा लेते हैं तो कभी हिंसा पर उतर आते हैं। दिनभर में इस प्रकार का व्यवहार हम आवेश में आकर कर बैठते हैं। किन्तु शाम को जब कुछ शान्त हों, तो अपने आपकी आलोचना अवश्य करनी चाहिए। उसी से बोध होता है कि मैं कहाँ गलत था और कहाँ नहीं। अपनी गलती को गलती मान लेने में अपना हित है। वही आत्मशुद्धि का सूत्र है । 15.17 नवम्बर 2006 कभी-कभी आग्रह के कारण सही बात को स्वीकार न करके अहंकार के कारण दूसरे को दबाने की सोचते हैं, किन्तु बाद में ठण्डे दिमाग से सोचना चाहिए कि क्या उसका कहना सही था? यदि सही हो तो उसे स्वीकार कर लेने के लिए तत्पर रहना चाहिए। अहं के टकराव के कारण सत्य से विमुख होना उचित नहीं । अनेकान्तवाद की दृष्टि से सोचना चाहिए- क्या दूसरे के दृष्टिकोण में सत्य का बल है? यदि दूसरा सही हो तो अपनी भूल को स्वीकार करने में विलम्ब नहीं करना चाहिए। ऐसा न हो कि हम एक भूल को छिपाने के लिए अन्य अनेक भूलें करते रहें। अहंकारी एवं जिद्दी प्रवृत्ति के लोग अपनी भूल को स्वीकार करने की हिम्मत नहीं जुटा पाते, अतः उनमें सुधार की भी कोई गुंजाइश नहीं रहती । भावना शुद्ध हो तो दोष की संभावना कम रहती है। दोष पहले भावों में आता है, फिर वह क्रियात्मक रूप लेता है इसलिए भावों को शुद्ध रखने के लिए प्रत्याख्यान स्वरूप संकल्प की भी आवश्यकता होती है। मैं प्रतिदिन इस प्रकार का प्रतिक्रमण करने का प्रयास करता हूँ और सोचता हूँ कि मेरी क्या कमजोरियाँ हैं। उन कमजोरियों एवं दोषों को दूर करने का प्रयत्न भी करता हूँ। मैं तो यह समझता हूँ कि Pratikramana is the tool for self correction ( प्रतिक्रमण आत्मसुधार का साधन है ) । - संयोजक, संरक्षक-मण्डल, अ.भा. श्री जैन रत्न हितैषी श्रावक संघ मुणोत विला, वेस्ट कम्पाउण्ड लेन, ६३ - के, भुलाबाई देसाई रोड़, मुम्बई (महा.) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
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