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|254 जिनवाणी
||15,17 नवम्बर 2006|| जाती हैं। इस प्रकार मानसिक दूषित भाव शरीर, मन, आत्मा और पर के प्रति भी दूषित प्रभाव डालते हैं। इन दूषित भावों से केवल इहलोक नहीं, किन्तु परलोक में भी अनेक कष्टों को सहना पड़ता है। (३) उभय प्रायश्चित्त- अपने अपराध की गुरु के सामने आलोचना करके गुरु की साक्षीपूर्वक अपराध से निवृत्त होना- उभय नाम का प्रायश्चित्त है। शंका- यह उभय प्रायश्चित्त कहाँ पर होता है? समाधान- यह दुःस्वप्न देखने आदि अवसरों पर होता है।' (४) विवेक प्रायश्चित्त- गण, गच्छ, द्रव्य और क्षेत्र आदि से अलग करना- विवेक नाम का प्रायश्चित्त
शंका- यह विवेक प्रायश्चित्त कहाँ पर होता है? समाधान- जिस दोष के होने से उसका निराकरण नहीं किया जा सकता, उस दोष के होने पर यह प्रायश्चित्त होता है।
उभय शब्द की अनुवृत्ति होने से उपवास आदि के साथ जो गच्छादि के त्याग का विधान किया जाता है, उसका अन्तर्भाव इसी विवेक प्रायश्चित्त में हो जाता है। (५) काय-ममत्व त्याग (कायोत्सर्ग) प्रायश्चित्त- काया का उत्सर्ग करके ध्यानपूर्वक एक मुहूर्त, एक दिन, पक्ष और महीना आदि काल तक स्थित रहना व्युत्सर्ग नाम का प्रायश्चित्त है। यहाँ पर भी द्विसंयोग आदि की अपेक्षा भंगों की उत्पत्ति कहनी चाहिए। क्योंकि उभय शब्द देशामर्षक है।" शंका- यह व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त किसके होता है ? समाधान- जिसने अपराध किया है, किन्तु जो अपने विमल ज्ञान से नौ पदार्थों को समझता है, वज्र संहनन वाला है, शीतपात और आताप को सहन करने में समर्थ है तथा सामान्य रूप से शूर है, ऐसे साधु के होता
काय संबंधी ममत्व, मोह, राग, सुखासीनता का त्याग करना कायोत्सर्ग है। शरीर से ममत्वादि त्याग करने से मन स्थिर हो जाता है। पन स्थिरता से ध्यान-साधन सुचारु रूप से होता है। उस ध्यान से पूर्वोपार्जित पापकर्म धुल जाते हैं। अतः कायोत्सर्ग कर्म नष्ट करने के लिए साधनभूत है।
समस्त शरीर को सहज रूप से ढीला छोड़कर एवं मानसिक संकल्प-विकल्प आदि को त्यागकर कायोत्सर्ग करने से शारीरिक तनाव दूर हो जाता है। केवल शारीरिक तनाव ही दूर नहीं होता है, बल्कि उसके साथ-साथ मानसिक ग्रंथियाँ ढीली हो जाती हैं। इससे मन तनाव मुक्त होकर स्वच्छ निर्मल हो जाता है। इससे पापकर्म भी धुल जाते हैं।
वर्तमान मनोवैज्ञानिक चिकित्सक भी मानसिक रोग दूर करने के लिए कायोत्सर्ग, शरीर
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