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15, 17 नवम्बर 2006
जिनवाणी
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किसी अन्य की है और जो भी घटित हो रहा है उसे बाहर से उदासीन भाव से देख रहे हैं। अब तक देह पर होने वाली घटनाओं को मन निष्पक्ष भाव से न देखकर यह चुनाव करता था कि यह संवेदना या घटना अच्छी है या बुरी और इस प्रकार राग-द्वेष में फंस जाता था। जो प्रिय है वह और चाहिये, जो अप्रिय है वह हटनी चाहिये। इसी प्रतिक्रिया में और दुःख या सुख के भोगने में ही जीवन बीत जाता है, परन्तु अब कायोत्सर्ग में भोगने की बजाय केवल द्रष्टाभाव से देखना है और भोक्ता भाव से मुक्ति पानी है। इसी अभ्यास से देहातीत हो सकते हैं।
बिना अन्तर्मुखी हुए हम यदि स्वनिरीक्षण करते हैं तो स्वभावानुसार अपनी भूलों का सही रूप से निराकरण करने की बजाय उनका औचित्यीकरण ( Justification) करने लग जाते हैं और उन परिस्थितियों या व्यक्तियों को दोष देने लगते हैं जिनकी वजह से हमने कोई अकरणीय कार्य किया। यदि क्रोध किया तो उन परिस्थितियों को दोष देंगे या उन व्यक्तियों को जिम्मेदार ठहरायेंगे जिनकी वजह से क्रोध आया। औचित्यीकरण का दौर चलने पर निशल्यीकरण संभव नहीं है। इसके लिये ऐसी तकनीक का उपयोग करना पड़ेगा जिससे सचेत मन का उपयोग कम से कम हो, क्योंकि सचेत मन प्रत्येक कार्य का औचित्य ढूंढ लेता है। यह इसका स्वभाव बन चुका है।
मनोवैज्ञानिकों की मान्यता है कि जाग्रत मस्तिष्क कुल मस्तिष्क का बहुत छोटा हिस्सा है और बहुत बड़ा हिस्सा है सुषुप्त मस्तिष्क, जो कभी सोता नहीं और हमारी विभिन्न गतिविधयों और आवेगों पर नियन्त्रण रखता है। जब तक सुषुप्त मस्तिष्क पर हमारा नियन्त्रण नहीं होगा और इसके प्रति जागृति नहीं होगी हमारे कार्यकलापों व आवेगों पर हमारा नियन्त्रण नहीं होगा। कायोत्सर्ग में सुषुप्त मन तक पहुंचने का प्रयास होता है । जिस सुषुप्त मस्तिष्क या अवचेतन मन में पूर्व से संस्कार भरे हैं और जिससे हमारे आवेग (Emotions) संचालित या नियन्त्रित होते हैं, उसके प्रति जागरूक हुए बिना हम अपने मन व शरीर पर पूर्ण रूप से नियन्त्रण नहीं कर सकते।
अवचेतन मन में बहुत से विचार व संस्कार जन्म ( एवं जन्मान्तर ) से भरे पड़े हैं और हमारे कई कृत्य ऐसे होते हैं जिनको हम सचेत रूप से करते ही नहीं और हो जाने के बाद ताज्जुब या पश्चात्ताप करते हैं कि यह कैसे हो गया। अतः सही रूप से निःशल्य होने के लिये अवचेतन मन तक पहुंचना आवश्यक है और यह कायोत्सर्ग के माध्यम से संभव है।
कायोत्सर्ग में जब शरीर शिथिल होता है तब जाग्रत मस्तिष्क भी शिथिल हो जाता है, परन्तु सुषुप्त मन सक्रिय रहता है और उसकी गतिविधियों को साक्षीभाव से देखने से आवेगों व संस्कारों को भी देखने का मौका मिलता है। संस्कार उभर कर शरीर पर संवेदनाओं के रूप में आते हैं जैसे शरीर में कहीं दर्द, कहीं फड़कन, खुजलाहट, सरसराहट या कोई सुखद संवेदना जैसे दर्द का कम होना, स्फूर्ति होना, चिन्मयता आदि। इन संवेदनाओं के प्रति सजग रह कर केवल यह देखना है कि
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