SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 219
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ | 2201 | जिनवाणी ||15,17 नवम्बर 2006|| क्योंकि उन्होंने यह जान लिया कि मनुष्य के दुःख का मूल कारण है- “बीमार मन" और मन का इलाज ही सही व स्थायी इलाज है। जब तक मन बाहरी साधनों या वस्तुओं से आसक्त है, मन का इलाज संभव नहीं है। साधनों से आसक्ति हटाने के लिये शरीर से ममता या आसक्ति हटाना आवश्यक है, क्योंकि साधनों का संग्रह शरीर के लिये ही किया जाता है। शरीर के प्रति ममता साधना में सबसे बड़ी बाधा है। शरीर से ममता भाव हटाना, देह में रहकर भी देहातीत स्थिति में हो जाना अर्थात् कायोत्सर्ग करना है। कायोत्सर्ग को व्रणचिकित्सा अर्थात् घावों की चिकित्सा भी कहा है। मन में उत्पन्न विकारों से हुए घावों को ठीक करने के लिये कायोत्सर्ग एक प्रकार का मरहम है। जैन आगम के महत्त्वपूर्ण सूत्र ‘आवश्यक सूत्र' में कायोत्सर्ग में स्थापित होने का सूत्र निम्न प्रकार है "तस्स उत्तरीकरणेणं पायछित्तकरणेणं, विसोहीकरणेणं, विसल्लीकरणेणं, पावाणं कम्माणं निग्घायणगाए नामि काउस्सग्गं"-आवश्यकसूत्र अर्थ-- जीवन को अधिकाधिक परिष्कृत करने, प्रायश्चित्त करने, विशुद्धि करने, शल्य से मुक्ति पाने और पाप कर्म का निर्घात अर्थात् नाश करने के लिये कायोत्सर्ग करता हूँ। दैनिक जीवन में जो भी कार्य किये जाते हैं और जिनके पीछे हमारे कषाय यथा- क्रोध, मान, माया, लोभ की प्रेरणा होती है, वे मन पर संस्कार कायम करते हैं, अपराध भाव को जन्म देते हैं और क्रिया-प्रतिक्रिया की शृंखला को जन्म देते हैं। ये ही कर्म संस्कार हमारे मन के शल्य या कांटें बन कर मन को बीमार करते हैं। इन शल्यों से मुक्ति पाना ही विशुद्धीकरण एवं कर्म का निवारण है। यह कायोत्सर्ग से संभव है। प्रायश्चित्त का साधारण अर्थ है- गलत किये का पश्चात्ताप और भविष्य में पुनः न करने का संकल्प। परन्तु सही अर्थ है चित्त में स्थित होकर चित्त को देखना। प्रायश्चित्त करने से मन का विशुद्धीकरण होता है और इसी से मन के शल्य यानी कांटे निकल जाते हैं और व्यक्ति शल्य से मुक्त हो जाता है। इससे जीवन परिष्कृत होता है और व्यक्ति उत्तरोत्तर प्रगति करता है। यह कार्य अन्तर्मुखी हुये बिना संभव नहीं है। अन्तर्मुखी होने का अर्थ है बाहर से अपने आपको मोड़ कर अन्दर झांकना या स्वनिरीक्षण करना। हम दूसरों की त्रुटियाँ तो बहुत आसानी से देखते हैं व चर्चा भी करते हैं, परन्तु अपनी ओर कम ही देखते हैं और कोई हमारे दोष इंगित करे तो आगबबूला हो जाते हैं या तिलमिला उठते हैं। स्वनिरीक्षण वह विधि है जिससे हम स्वयं को देख कर स्वयं ही अपना सुधार करते हैं। कायोत्सर्ग वह विधि है जिससे अवचेतन मन तक पहुंच कर मन की गहराइयों तक जा सकें और संस्कार मुक्त हो सकें। कायोत्सर्ग अर्थात् काया का उत्सर्ग। शरीर का ममत्व कम होने पर शरीर का शिथिलीकरण होता है और तनावों से मुक्ति पाते हैं। देह की ममता से हट कर देह पर उठने वाली संवेदनाओं को निष्पक्ष भाव से देखने लगते हैं और मन ऐसी स्थिति में आ जाता है जैसे देह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy