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________________ 176 जिनवाणी 15,17 नवम्बर 2006 तीन गुणवत १. दिग्विरति गुणव्रत दशस्वपि कृता दिक्षु यत्र सीमा न लंघ्यते। ख्यातं दिग्विरतिरिति प्रथमं तद्गुणवतं ।।-योगशास्त्र ३.१ पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ईशान, वायव्य, नैऋत्य, आग्नेय, ऊर्ध्व और अधो इन दसों दिशाओं में व्यापारादि के कार्य प्रसंग से आवागमन करने में सीमा बाँधकर उल्लंघन न करना दिशाविरमण या दिग्विरति व्रत कहलाता है। २. भोगोपभोग गुणव्रत भोगोपभोगयोः संख्या शक्त्या यत्र विधीयते। भोगोपभोगमानं तद् द्वैतीयकं गुणव्रतम् ।। सकृदेव भुज्यते यः स भोगोऽनसगादिकः । पुनः पुनः पुनर्भोग्य उपभोगोङ्गनादिकः ।।-योगशास्त्र, ३.४-५ जो द्रव्य एक ही बार प्रयोग में आते हैं जैसे अनाज, पुष्पमाला, विलेपन आदि ‘भोग' द्रव्य एवं जो पुनः पुनः प्रयोग में आते हैं जैसे वस्त्र, अलंकार, घर, शय्या, आसनादि द्रव्य ‘उपभोग' द्रव्य कहलाते हैं। शरीर की सामर्थ्यानुसार भोग-उपभोग के द्रव्यों की संख्या का निर्धारण करना अर्थात् नियम लेना भोगोपभोग गुणव्रत कहलाता है। ३.अनर्थदण्ड गुणव्रत आर्त्तरौद्रमपध्यानं पापकर्मोपदेशिता। हिंसोपकारि दानं च प्रमादाचरणं तथा ।। शरीराद्यर्थदंडस्य प्रतिपक्षतया स्थितः । योऽनर्थदंडस्तत्त्यागस्तृतीयं तु गुणवतम् ।।-योगशास्त्र ३.७३-७४ आर्त्तध्यान-रौद्रध्यान रूपी अशुभ ध्यान करना, पापकारक उपदेश देना, हिंसक उपकरणों को दूसरों को देना और प्रमाद का आचरण करना ये चारों कार्य शरीरादि के प्रयोजन से किए जाने पर अर्थदण्ड हैं तथा उनसे भिन्न अर्थात् निष्प्रयोजन किए जाने से अनर्थदण्ड होता है। अनर्थदण्ड का त्याग तीसरा गुणव्रत कहलाता है। चार शिक्षाव्रत १. सामायिक व्रत त्यक्तार्त्त-रौद्रध्यानस्य त्यक्तसावद्यकर्मणः। मुहूर्तं समता या तां विदुः सामायिकव्रतम् ।। -योगशास्त्र ३.८२ आर्त्तध्यान-रौद्रध्यान एवं सावध (सपाप) कार्यो का एक मुहूर्त पर्यन्त त्याग करके समभाव में रहना सामायिक व्रत कहलाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
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