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15.17 नवम्बर 2006
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जिनवाणी ३. अचौर्य
अनादानमदत्तस्यास्तेयव्रतमुदीरितम् ।
बाह्याः प्राणा नृणामथो हरता तं हता हि ते ।। योगशास्त्र १.२२ बिना दिए हुए द्रव्य का ग्रहण करना स्तेय (अचौर्य) व्रत कहलाता है। धन पर ममत्व होने से ये मनुष्य के बाह्य प्राण होते हैं। अतः इसका हरण होने पर मनुष्य के द्रव्य प्राणों का हरण हो जाता है।
पतितं विस्मृतं नष्टं स्थितं स्थापितमाहितम् ।
अदत्तं नाददीत स्वं परकीयं क्वचित्सुधीः ।। सुधी व्यक्ति को नीचे गिरी हुई, भूली हुई, खोई हुई, पड़ी हुई, स्थापित की हुई और नहीं दी हुई , सभी परकीय वस्तु या धन को ग्रहण नहीं करना चाहिए।
अयं लोक: परलोको धर्मो धैर्य धृतिर्मतिः ।
मुष्णता परकीयं स्वं मुषितं सर्वमप्यदः ।।-योगशास्त्र २.६७ परकीय द्रव्यों का हरणमात्र द्रव्यहरण नहीं होता अपितु वह उस मनुष्य की सभी वस्तुओं को चुरा लेता है, क्योंकि चोरी हो जाने पर उस मनुष्य का वर्तमान भव एवं परभव बिगड़ता है, धर्म की हानि होती है, धीरता का क्षय होता है, शान्ति में बाधा उत्पन्न करती है और बुद्धि का नाश होता है। अतः मात्र एक चोरी इन सबका हरण कर लेती है। ४. ब्रह्मचर्य व्रत
दिव्यौदारिककामानां कृतानुमतिकारितैः ।
मनोवाक्कायतस्त्यागो ब्रह्माष्टादशधा मतम् ।। -योगशास्त्र १.२३ दिव्य अर्थात् देव-देवी संबंधी और औदारिक अर्थात् मनुष्य तथा तिर्यंच संबंधी विषयों का मन, वचन और काया से करूँ नहीं, कराऊँ नहीं और अनुमोदूँ नहीं इस तरह अठारह प्रकार से त्याग करना ब्रह्मचर्य महाव्रत कहलाता है। (2 x 3 x 3 = 18) ५. अपरिग्रह व्रत
सर्वभावेषु मूछीयाः त्यागः स्यादपरिग्रहः।
यदसत्स्वपि जायेत, मूर्च्छया चित्तविप्लवः ।।-योगशास्त्र १.२४ सभी पदार्थों पर से मूर्छा या आसक्ति का त्याग करना अपरिग्रह व्रत कहलाता है। मूर्छा (आसक्ति) के कारण अविद्यमान या अप्राप्त वस्तुओं के सम्बन्ध में भी चित्त में अशान्ति हो जाती है।
असंतोषमविश्वासमारंभं दुःखकारणम् ।
मत्वा मूफिलं कुर्यात् परिगृहनियंत्रणम् ।।-योगशास्त्र २.१०६ ___ मूर्छा का फल परिग्रह असंतोष, अविश्वास, आरम्भ और दुःख का कारण है, अतः उस परिग्रह पर नियन्त्रण करना चाहिए।
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