SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 171
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 172 | जिनवाणी |15,17 नवम्बर 2006|| स्वयं हाथ से आरंभ करने लगे तो कितना भी करे, वह मर्यादित ही होगा। लेकिन कराने में तो लाखो-करोड़ों से भी करने के लिये कहा जा सकता है। करने में तो दो ही हाथ लगते हैं, परन्तु कराने में लाखों-करोड़ों हाथ लग सकते हैं। करने का समय भी मर्यादित होगा परन्तु कराने में तो समय का भी विचार नहीं रह सकता। करने का क्षेत्र भी मर्यादित होगा, परन्तु कराने का क्षेत्र व्यापक होता है। इस तरह करने का द्रव्य, क्षेत्र और काल मर्यादित होता है जबकि कराने का द्रव्य, क्षेत्र और काल बहुत व्यापक होता है। इस कारण स्वयं करने की अपेक्षा कराने से पाप ज्यादा खुला रहता है। अब अनुमोदन को लीजिये - काम कराने में भी कोई व्यक्ति चाहिये ही, परन्तु अनुमोदन तो यहाँ बैठे हुए ही सारे जगत् के पापों का हो सकता है। __आज के विज्ञापनबाजी के युग में यहाँ बैठे हुए ही दुनिया भर के कामों की और आरंभों की अनुमोदना की जा सकती है। भले ही वह वस्तु उपलब्ध न हो तो उसकी प्रशंसा या अनुमोदना तो की जा सकती है। इस तरह अनुमोदन का द्रव्य, क्षेत्र, काल करने-कराने से भी बढ़ जाता है। अनुमोदन का पाप ऐसा होता है कि बिना कुछ किये ही महारम्भ का पाप हो जाता है। इसके लिए भगवती सूत्र के २४वें शतक में अंगुल के असंख्यातवें भाग अवगाहन वाले तंदुलमच्छ का उदाहरण दिया गया है। तंदुलमच्छ ने स्वयं मछलियों की हिंसा नहीं की, नहीं कराई लेकिन उसने केवल दुर्भावना की- यदि इस मत्स्य की जगह मैं होता तो सब मछलियों को खा जाता, एक को भी बाहर नहीं निकलने देता। ऐसी दुष्ट भावना के कारण वह छोटासा मत्स्य, मछलियों की हिंसा न करने, कराने पर भी हिंसा के अनुमोदन के कारण सातवीं नरक में गया। इस तरह करने और कराने की अपेक्षा अनुमोदन का क्षेत्र बड़ा है। कर्मबंध का मुख्य आधार मन होता है। क्रिया समान होने पर भी मनोभावना में अन्तर रहता है। एक व्यक्ति जिन नेत्रों से अपनी बहन को देखता है उन्हीं नेत्रों से अपनी पत्नी को भी देखता है, परन्तु मनोभावना का अन्तर रहता है। बिल्ली अपने मुँह में अपने बच्चे को भी पकड़ती है और चूहे को भी पकड़ती है, परन्तु दोनों की पकड़ में मनोभावना का अंतर रहता है अतएव कर्मबंध का मुख्य आधार मनोभावना है-अध्यवसाय कहा जा सकता है कि शास्त्रकारों ने तो मन-वचन-काय तीनों को कर्मबंध का कारण कहा है, फिर मन को ही क्यों मुख्य आधार माना जाय? इसका समाधान यह है कि वचन और काय के साथ भी तो मन रहता है। अतएव मन की मुख्यता मानी जाती है। ___ सारांश यह है कि किसी समय करने में पाप ज्यादा होता है, और कराने में कम होता है। कभी कराने में ज्यादा होता है। यह बात विवेक-अविवेक पर निर्भर है। हाँ, यह आवश्यक है कि करने की अपेक्षा कराने का द्रव्य, क्षेत्र, काल ज्यादा है और कराने की अपेक्षा अनुमोदना का ज्यादा है। यही बात पुण्य और धर्म के लिए भी है। प्रत्येक काम में विवेक की आवश्यकता है। विवेक न होने पर अविवेक के कारण अल्पारंभ भी महारम्भ बन जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy