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________________ 15,17 नवम्बर 2006 जिनवाणी, 167 पाणा, कृत,कारित और अनुमोदन में से अधिक पाप किसमें? आचार्य श्री नानेश पापक्रिया स्वयं करना, दूसरों से कराना एवं पापक्रिया करने वाले का अनुमोदन करनाइनमें व्यक्ति पाप का भागी अपने भावों के अनुसार होता है। कभी स्वयं सावधक्रिया करने की अपेक्षा, दूसरों से कराने में एवं कभी अनुमोदन में अधिक पाप हो सकता है। श्रमण के पंच महाव्रत हों या श्रावक के बारह व्रत उनमें कृत, कारित एवं अनुमत का उल्लेख आता है। आचार्य श्री नानेश की कृति 'जिणधम्मो' से संकलित इस लेख में इन त्रिविध करण पर सुन्दर विवेचन समुपलब्ध है। __ -सम्पादक श्रावक प्रायः दो करण, तीन योग से व्रत ग्रहण करता है। जो गार्हस्थ्य जीवन के दायित्व से हटकर प्रतिमाधारी उत्कृष्ट श्रावक का दायित्व ले लेता है, वह तीन करण, तीन योग से भी व्रत ग्रहण कर सकता है। परन्तु जिस पर अभी गृहस्थाश्रम का भार है वह तीन करण, तीन योग से त्याग नहीं कर सकता। हाँ, वह स्वयंभूरमण समुद्र के मत्स्य वध का तीन करण, तीन योग से त्याग कर सकता है, क्योंकि वहाँ तक कोई मनुष्य पहुँच ही नहीं सकता। अन्य स्थितियों में औसत श्रावक दो करण तीन योग से ही हिंसा, असत्य आदि पापों का त्याग कर सकता है। अनुमोदना का त्याग वह कर नहीं सकता, क्योंकि उसे कई ऐसे लोगों से भी अपना रिश्ता नाता रखना पड़ता है जो माँसाहारी हों अथवा अन्य पापों का त्याग न किये हुए हों। उसके परिवार में भी कोई ऐसा व्यक्ति हो तो उसके साथ उसे रहना पड़ता है। इसलिये संवासानुमति और मनसानुमति दोनों प्रकार की अनुमति की छूट वह रखता है। हालांकि वह अपने सम्बन्धी को वचन से और काया से किसी पाप की अनुमति नहीं देता, किन्तु उसके साथ रहने, परिचित होने या उसके सम्बन्धी होने के नाते उसकी मूक अनुमति तो हो ही जाती है। वह स्वयं स्थूल हिंसा आदि नहीं करता, दूसरों से भी नहीं कराता, किन्तु गार्हस्थ्य का त्यागी न होने के कारण उसने अपने परिवार से ममत्व भाव का छेदन नहीं किया है, अतः परिवार में पुत्र-पौत्र या कोई परिजन हिंसादि करता हो तो वह उसे न तो सहसा स्वयं छोड़ सकता है, न उसके साथ परिचय का भी सहसा त्याग कर सकता है। यद्यपि गृहस्थ श्रावक अपने साथ रहने वाले पुत्र-पौत्रादि को हिंसादि करने का कहता नहीं, न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
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