________________
160
जिनवाणी
||15,17 नवम्बर 2006|| अण्णाणं संसओ चेव, मिच्छाणाणं तहेव य। राग-दोसो महिभंतो, धम्मम्मि य अणादरो।। जोगाणं दुप्पणिहाणं, पमाओ अट्टहा भवे ।
संसारूत्ताकामेणं सव्वहा वज्जियव्वओ।। अर्थात् १. अज्ञान में रमण करना, २. बात-बात में वहम करना, ३. पापोत्पादक कहानियाँ, कामशास्त्र आदि से सम्बद्ध असत् साहित्य को पढ़ना, ४. धन-कुटुम्ब आदि में अत्यन्त आसक्त होना तथा विरोधियों पर एवं अनिष्ट वस्तुओं पर द्वेष धारण करना, ५. धर्म, धर्मक्रिया एवं धर्मात्मा का आदर न करना, ६-८. दुष्प्रणिधान से मन, वचन एवं काया रूप तीनों योगों को मलिन करना। इन आठों प्रमाद के सेवन से लाभ तो कुछ होता नहीं, कर्मबन्ध सहज ही हो जाता है। ये प्रमाद संसार का परिभ्रमण बढाने वाले हैं। श्रावक को विवेक रखकर इनका त्याग करना चाहिए।
कितने लोग ताश, शतरंज, चौपड़ आदि खेल में इधर-उधर की गप मारने में या खराब पुस्तकों को पढने में ऐसे मग्न हो जाते हैं कि उन्हें समय का भी ध्यान नहीं रहता और खाना-पीना भी भूल जाते हैं । उनके आगे तरह-तरह की झंझटें खड़ी हो जाती हैं। वे सज्जनों से भी शत्रुता कर लेते हैं। इससे सारा जीवन और भविष्य दुःखद हो जाता है।
__कोई-कोई अज्ञानी साफ रास्ता छोड़कर इधर-उधर उन्मार्ग में चलते हैं और कच्ची मिट्टी, सचित्त पानी, वनस्पति, दीमकों और चींटियों के बिलों को कुचलते हुए चलते हैं। चलते-चलते बिना प्रयोजन वृक्षों की डालीपत्ते, फल, घास, तिनका आदि तोड़ते जाते हैं। हाथ में छड़ी लेकर चलते समय वृक्ष को, गाय को या कुत्ता आदि को मारते चलते हैं। अच्छी जगह छोड़कर मिट्टी के ढेर पर, अनाज की राशि पर, धान्य के थैलों पर अथवा हरी घास आदि पर बैठ जाते हैं। दूध , दही, घी, तेल, छाछ, पानी आदि के बर्तनों को बिना ढके छोड़ देते हैं। खोदने, पीसने, लीपने, राँधने और धोने आदि कामों के लिए ऊखल, मूसल, सलवट्टा, चक्की, चूल्हा, वस्त्र, बर्तन आदि को बिना देखे-भाले ही काम में ले लेते हैं। ऐसा करने से भी बहुत बार त्रस जीवों की हिंसा हो जाती है। इस प्रकार के सभी कार्य प्रमादाचरित हैं। इनका सेवन करने से लाभ तो कुछ नहीं होता है और हिंसा आदि पापों का आचरण होने से घोर कर्मो का बंध हो जाता है, जिनका फल बड़ी कठिनाई से भोगना पड़ता है। श्रावक को प्रमादाचरित अनर्थदण्ड से सदैव बचते रहना चाहिए। ३. हिंसाप्रदान अनर्थदण्ड - हिंसा में सहायक होना और हिंसाकारी वचन बोलना । जिनसे हिंसा होती है ऐसे अस्त्र, शस्त्र, आग, विष आदि हिंसा के साधन अन्य विवेकहीन व्यक्तियों को दे देना, हिंसा में सहायक होना है। दशवैकालिक सूत्र में बताया गया है कि -
सुकडित्ति सुपक्किति, सुच्छिन्ने सुहड़े मडे।
सुणिट्टिए सुलठ्ठित्ति सावज्जं वज्जर मुणी ।। यह गाथा यद्यपि साधु के द्वारा भोजन की प्रशंसा आदि से सम्बद्ध है, तथापि श्रावक के लिए भी उपादेय है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org