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|15,17 नवम्बर 2006
| जिनवाणी १५. असतीजन पोषणता कर्म - कुलटा स्त्रियों का पोषण, हिंसक प्राणियों का पालन, जैसे चूहे मारने के निमित्त बिल्ली पालना, वेश्यावृत्ति करवाना।
इन पन्द्रह कर्मादानों में से दस कर्म हैं और पाँच वाणिज्य हैं। श्रावक के लिए ये सबके सब त्याज्य हैं, क्योंकि इन कार्यों से महती हिंसा होती है। इन कर्मादानों के संबंध में भगवती सूत्र में पाठ आया है कि- जे इमे समवोवासगा भवंति तेसिं नो कप्पंति इमाइं पण्णरसकम्मादाणाई सयं करेत्तर वा कारवत्तेए वा अण्णं समणुजाणेत्तर वा। अर्थात् इन कर्मादानों को स्वयं नहीं करें, दूसरों से नहीं करावें तथा करने वाले को अच्छा नहीं मानें, क्योंकि ये ज्ञानावरणीय आदि के उत्कृष्ट कर्म बंध के हेतु हैं। ३. तीसरा गुणवत'अर्थदण्ड विरमण व्रत'
अनर्थदण्ड विरमणव्रत नामक तीसरा गुणव्रत है। दण्ड दो प्रकार का है १. अर्थदण्ड २. अनर्थदण्ड। अपने शरीर, पुत्र, पुत्री, परिवार, नौकर-चाकर, समाज, देश, कृषि, व्यापार आदि के निमित्त कार्य करने में जो आरम्भ होता है, वह अर्थदण्ड कहलाता है। इसके अतिरिक्त बिना प्रयोजन अथवा प्रयोजन से जो अधिक आरंभ किया जाता है, वह अनर्थदण्ड कहलाता है। अर्थदण्ड की अपेक्षा अनर्थदण्ड में ज्यादा पाप होता है, क्योंकि अर्थदण्ड में करने की भावना गौण और प्रयोजन सिद्ध करने की भावना प्रधान होती है, जबकि अनर्थदण्ड में आरंभ करने की बुद्धि प्रधान होती है और प्रयोजन कुछ होता नहीं है। अनर्थदण्ड हिंसा के चार रूप हैं- १. अपध्यानाचरित, २. प्रमादाचरित, ३. हिंसाप्रदान और ४. पापकर्मोपदेश। १. अपध्यानाचरित अनर्थदण्ड - जो ध्यान अप्रशस्त है, बुरा है वह अपध्यान है। ध्यान का अर्थ है किसी भी प्रकार के विचारों में चित्त की एकाग्रता। व्यर्थ के बुरे संकल्पों में चित्त को एकाग्र करने से जो अनर्थदण्ड होता है, उसको अपध्यानाचरित अनर्थदण्ड कहते हैं। अपध्यान के दो भेद हैं- आर्त्तध्यान और रौद्रध्यान। असत्, अशुभ या खोटें विचार करना। जैसे इष्टकारी स्त्री, पुत्र, स्वजन, मित्र, स्थान, खान-पान, वस्त्राभूषण आदि का संयोग मिलने पर
आनंद में मग्न हो जाना और इन सबके वियोग में तथा ज्वर आदि रोग हो जाने पर दुःख मानना, हाय-हाय करना । यह सब आर्तध्यान कहलाता है। हिंसा के काम में, मृषावाद के काम में, चोरी के काम में तथा भोगोपभोग के संरक्षण के कार्य में आनन्द मानना, दुश्मनों की घात या हानि होने का विचार करना रौद्रध्यान कहलाता है। आर्त एवं रौद्र- यह दोनों ध्यान अपध्यान हैं। श्रावक को ऐसे विचार नहीं करने चाहिए। कदाचित् अशुभ विचार उत्पन्न हो जाये तो सोचना चाहिए कि “चेतन! तू नाहक कर्म का बन्ध क्यों करता है?" इस प्रकार विचार करके समभाव धारण करना चाहिए और खोटे विचार के उत्पन्न होते ही शुभ विचार के द्वारा दबा देना चाहिए। २. प्रमादाचरित अनर्थदण्ड - प्रमाद का आचरण करना। प्रमाद से आत्मा का पतन होता है। प्रमाद पाँच हैं - मद, विषय, कषाय, निद्रा और विकथा। ये पाँच प्रमाद अनर्थदण्ड रूप हैं। प्रमाद के दूसरे प्रकार के आठ भेद भी कहे गए हैं, यथा -
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