SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 154
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 15, 17 नवम्बर 2006 जिनवाणी 155 ४. क्षेत्रवृद्धि - पूर्व आदि चारों दिशाओं में आने-जाने के लिए जो क्षेत्र मर्यादित किया गया हो, उसको व्रत की अपेक्षा रखते हुए बढ़ा देना 'क्षेत्रवृद्धि' कहलाता है। जैसे किसी श्रावक ने पूर्व दिशा में आने-जाने के लिए सौ योजन की मर्यादा कायम की है और पश्चिम दिशा में दस योजन की अवधि नियत की है। उस श्रावक को पश्चिम दिशा में दस योजन से अधिक क्षेत्र में जाने का कार्य उपस्थित होने पर वह यदि पूर्व दिशा के कुछ योजनों को पश्चिम दिशा में मिलाकर पश्चिम दिशा के क्षेत्र की वृद्धि करे तो यह क्षेत्रवृद्धि नामक अतिचार है। ऐसा करने वाले श्रावक ने अपने व्रत की अपेक्षा रखकर क्षेत्रवृद्धि की है। इसलिए इसका यह कार्य अतिचार है, अनाचार नहीं है। ५. स्मृतिभ्रंश - जिस दिशा में जाने-आने के लिए जितनी मर्यादा निश्चित की है, उसको भूल जाना अथवा नियत की हुई मर्यादा पूरी न होने पर भी पूरी होने का सन्देह होने पर आगे चले जाना स्मृतिभ्रंश नामक अतिचार है । पहला गुणव्रत अर्थात् छठा व्रत धारण करने से ३४३ घनरज्जु विस्तार वाले सम्पूर्ण लोक सम्बन्धी जो पाप आता था वह सीमित होकर जितने कोस की मर्यादा की होती है उतने ही कोस क्षेत्र मर्यादित हो जाता है। इससे सघन तृष्णा का निरोध हो जाता है और मन को सन्तोष तथा शान्ति प्राप्त होती है, इसके साथ ही आत्मा के गुणों में विशुद्धि तथा वृद्धि होती है। (२) दूसरा गुणव्रत 'उपभोग - परिभोग परिमाण व्रत' उपभोग - आहार, पानी, पकवान, शाक, इत्र, ताम्बूल आदि जो वस्तुएँ एक ही बार भोगी जाती हैं, वे उपभोग ॐ कहलाती हैं । परिभोग - स्थान, वस्त्र, आभूषण, शयनासन आदि जो वस्तुएँ बार-बार भोगी जाती हैं, वे परिभोग कहलाती हैं। इस व्रत में उपभोग और परिभोग में आने वाली वस्तुओं की मर्यादा एक-दो दिन आदि के रूप में सीमित काल तक अथवा जीवन पर्यन्त के लिए की जा सकती है। यह व्रत अहिंसा और संतोष की रक्षा के लिए है। इससे जीवन में सादगी और सरलता का संचार होता है। महारंभ, महापरिग्रह और महातृष्णा से श्रावक मुक्त होता है। यह दो तरह से होता है भोजन से और कर्म से । उपभोग-परिभोग पदार्थों का परिमाण से अधिक सेवन करने का प्रत्याख्यान करना ‘भोजन से उपभोग- परिभोग परिमाण व्रत' है। उनकी प्राप्ति के साधनभूत धन का उपार्जन करने के लिए मर्यादा के उपरान्त व्यापार करने का त्याग करना 'कर्म से उपभोग-परिभोग परिमाण व्रत' उपभोग परिभोग योग्य की वस्तुओं को मुख्य रूप से आगम साहित्य में २६ प्रकारों में विभक्त किया गया है छब्बीस प्रकार की वस्तुएँ १. उल्लणियाविहि- शरीर साफ करने या शौक के लिए रखे जाने वाले रुमाल, तौलिये आदि की मर्यादा । २. दंतणविहि- दातौन करने के साधन की मर्यादा । जहाँ पर 'भोग-उपभोग' शब्द आता है वहाँ भोग का अर्थ एक ही बार भोगी जाने वाली वस्तुओं से है तथा उपभोग IT अर्थ बार-बार भोगी जाने वाली वस्तुओं से है। -सम्पादक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy