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15,17 नवम्बर 2006. जिनवाणी, 152
तीन गुणवतों एवं चार शिक्षा व्रतों का महत्त्व
डॉ. मंजुला बम्ब
___ गुणव्रत अणुव्रतों के पालन में सहायता प्रदान करते हैं और शिक्षाव्रत नित्य अभ्यास से अणुव्रतों के प्रति दृढ़ता का भाव पैदा करते हैं । गुणव्रत की क्यारी में, शिक्षाव्रत के जल से अणुव्रत का पौधा यदि सींचा जाता है तो निश्चित ही एक दिन यह पौधा महान् फलदायी होता है। प्रस्तुत लेख में तीन गुणव्रतों एवं चार शिक्षाव्रतों पर समीचीन प्रकाश डाला गया है। -सम्पादक
प्रतिक्रमण जैन साधना का मूल प्राण है। यह जीवन-शुद्धि और दोष-परिमार्जन का महासूत्र है। प्रतिक्रमण साधक की अपनी आत्मा को परखने का, निरखने का एक महत्त्वपूर्ण उपाय है। जैसे वैदिक परम्परा में संध्या का, बौद्ध परम्परा में उपासना का, ईसाई परम्परा में प्रार्थना का, इस्लाम धर्म में नमाज का महत्त्व है वैसे ही जैन धर्म में दोष शुद्धि हेतु प्रतिक्रमण का महत्त्व है।
प्रतिक्रमण का अर्थ बताते हुए आचार्य हरिभद्र (७००-७७० ई.) ने आवश्यक सूत्र की टीका में महत्त्वपूर्ण प्राचीन श्लोक का कथन किया है -
स्वस्थानाद्यत् पर-स्थानं, प्रमादस्य वशाद्गतः।
तत्रैव क्रमणं भूयः प्रतिक्रमणमुच्यते ।। अर्थात् प्रमादवश शुद्ध परिणति रूप आत्मभाव से हटकर अशुद्ध परिणति रूप पर-भाव को प्राप्त करने के बाद फिर से आत्मभाव को प्राप्त करना प्रतिक्रमण है।
प्रतिक्रमण का अर्थ है शुभ योगों से अशुभ योगों में गयी हुई अपनी आत्मा को पुनः शुभ योगों में लौटाना। अशुभ योग से निवृत्त होकर निःशल्यभाव से उतरोत्तर शुभ योगों में प्रवृत्त होना प्रतिक्रमण है।
जो साधक किसी प्रमाद के कारणवश सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र रूप स्वस्थान से हटकर मिथ्यात्व, अज्ञान एवं असंयम रूप पर स्थान में चला गया हो, उसका पुनः स्वस्थान में लौट आना प्रतिक्रमण है।
साधना के क्षेत्र में मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय, अशुभ योग ये पाँच आस्रव अत्यन्त भयंकर माने गये हैं। प्रत्येक साधक को इनका प्रतिदिन प्रतिक्रमण करना चाहिए। मिथ्यात्व का परित्याग कर सम्यक्त्व में आना चाहिए। अविरति को त्यागकर विरति को स्वीकार करना चाहिए। प्रमाद के बदले में अप्रमाद को तथा कषाय का परिहार कर क्षमादि को धारण करना चाहिए और संसार की वृद्धि करने वाले अशुभ योगों के व्यापार का त्यागकर शुभ योगों में रमण करना चाहिए।
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