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________________ 15,17 नवम्बर 2006 - जिनवाणी, 148 पाँच अणुव्रतों के अतिचारों की प्रासगिकता श्री प्रकाशचन्द जैन - श्रावक प्रतिक्रमण में पाँच अणुव्रतों के शोधन का बड़ा महत्त्व है। प्राणातिपात विरमण आदि पाँच अणुव्रतों के अतिचारों पर प्रस्तुत लेख में जैन विद्वान् एवं स्वाध्याय शिक्षा के सम्पादक श्री प्रकाशचन्द जी जैन ने सारगर्भित विवेचन किया है। -सम्पादक सभी प्रमुख भारतीय दर्शनों ने अहिंसा, सत्य, अस्तेय, बह्मचर्य और अपरिग्रह को किसी न किसी रूप में अवश्य स्वीकार किया है। योगदर्शन में इन्हें पाँच यम के नाम से अभिहित किया गया है। बौद्धदर्शन में इन्हें पंचशील कहा गया है। जैन दर्शन में इन्हें महाव्रत या अणुव्रत कहा गया है। भारतीय कानून में भी इनकी पालना पर जोर दिया गया है। इनका उल्लंघन करने पर अपराध मानकर दण्ड का प्रावधान किया गया है। धर्म और कानून में इतना ही अन्तर है कि धर्म के क्षेत्र में नियमों का उल्लंघन करने की योजना को अतिचार मानकर उसके दण्ड के रूप में प्रतिक्रमण का विधान है तथा नियम का उल्लंघन करने पर विशेष प्रायश्चित्त रूप दण्ड का विधान है। जबकि कानून में नियमों का उल्लंघन करने की योजना बनाने या उल्लंघन करने पर उसे अपराध मानकर शरीरिक या आर्थिक दण्ड का विधान है। पाँच अणुव्रतों के अतिचार पहला अणुव्रत- थूलाओ पाणइवायाओ वेरमणं अर्थात् स्थूल रूप से प्राणातिपात का त्याग। इसमें श्रावक निरपराध त्रस जीवों की संकल्पपूर्वक हिंसा का त्याग करता है। इस अणुव्रत के ५ अतिचार निम्न हैं१. बंधे- अपराधी को क्रोधावेश में गाढ (कठोर) बन्धन में बाँधना। दण्ड के अनेक तरीके हैं। उनमें से एक है बंधन में डालना। ऐसा करने से प्राणों का अतिपात तो नहीं होता, परन्तु कष्टानुभूति अवश्य होती है, अतः इसे अतिचार माना गया है। जानवर, बच्चे, नौकर आदि के साथ कई बार ऐसा व्यवहार किया जाता है। २. वहे- मारपीट करना। क्रोधावेश में अपने आश्रित जानवर, बच्चे, नौकर आदि की मार-पीट करना। यह बन्धन से आगे की दण्ड-अवस्था है। ३. छविच्छेए- अंग-उपांगों का छेदन-भेदन करना। क्रोधातिरेक में व्यक्ति बन्धन और वध की अवस्था से आगे बढ़कर शरीर के अवयवों का छेदन-भेदन कर देता है जो प्राणान्तक कष्ट-दायक होता है। लेकिन प्राणों का अतिपात नहीं होता, अतः अतिचार है, अनाचार नहीं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
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