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________________ 120 1200 || जिनवाणी | 15,17 नवम्बर 2006 'चतुर्विंशतिस्तव सूत्र” बोलता है। तृतीय वन्दन आवश्यक- उसके बाद संडाशक स्थानों की प्रमार्जना कर और नीचे बैठकर दोनों भुजाओं से शरीर का स्पर्श न करता हुआ, पच्चीस बोल पूर्वक मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना करता है। उसी प्रकार पच्चीस बोल पूर्वक शरीर की प्रतिलेखना करता है। यहाँ श्राविका वर्ग दोनों स्कन्ध मस्तक एवं हृदय इन तीन स्थानों के दस बोलों को छोड़कर पन्द्रह बोलपूर्वक ही शरीर की प्रतिलेखना करता है। इसके बाद उस स्थान से खड़े होकर बत्तीस दोष रहित और पच्चीस आवश्यक की शुद्धिपूर्वक कृतिकर्म (द्वादशावर्त्तवन्दन) करता है। दैवसिक अतिचारों की आलोचना एवं चतुर्थ प्रतिक्रमण आवश्यक- फिर मस्तक सहित शरीर को कुछ झुकाकर और करयुगल में विधिपूर्वक मुखवस्त्रिका को धारणकर, दैवसिक अतिचारों को गुरु के समक्ष प्रकट करने के लिए आलोचना सूत्र बोलता है। उसके बाद मुखवस्त्रिका के द्वारा काष्ठासन अथवा पादप्रोञ्छन की प्रतिलेखना करता है तथा बाँये घुटने को नीचे कर और दाहिने घुटने को ऊँचा करके, दोनों हाथों में मुखवस्त्रिका को धारणकर सम्यक् प्रकार से प्रतिक्रमण सूत्र बोलता है। प्रतिक्रमण सूत्र की ४३ वी गाथा में ‘अब्भुट्टिओमि आराहणाए' के पाठ से लेकर शेष सूत्र को द्रव्य और भाव से खड़े होकर पढ़ता है। उसके बाद पूर्ववत् द्वादशावर्त्तवन्दन करता है, फिर प्रतिक्रमण मण्डली में पाँच आदि साधु हों तो तीन साधुओं से 'अब्भुट्टिओमि सूत्र' पूर्वक क्षमायाचना करता है तथा शेष साधुओं से स्थापनाचार्य के वन्दन के साथ क्षमायाचना करता है। पंचम कायोत्सर्ग आवश्यक- पुनः पच्चीस आवश्यक की शुद्धिपूर्वक कृतिकर्म (द्वादशावर्त्तवन्दन) करता है, फिर खड़े होकर मस्तक पर अंजलि किया हुआ 'आयरिय-उवज्झाय सूत्र' की तीन गाथा बोलता है। उसके बाद 'सामायिक सूत्र' और 'कायोत्सर्ग सूत्र को बोलकर, कायोत्सर्ग में चारित्रातिचार की शुद्धि निमित्त दो 'लोगस्स सूत्र' का चिन्तन करता है। उसके बाद गुरु महाराज के द्वारा कायोत्सर्ग पूर्ण किये जाने पर स्वयं कायोत्सर्ग को पूर्ण करता है। फिर ‘लोगस्स सूत्र' सव्वलोए ‘अरिहंतचेइयाणंसूत्र' 'अन्नत्थ सूत्र' बोलकर सम्यक्त्व की शुद्धि हेतु कायोत्सर्ग में एक ‘लोगस्स सूत्र' का चिन्तन करता है। फिर पुक्खरवरदीसूत्र" और 'अन्नत्थसूत्र' कहकर सूत्र की शुद्धि निमित्त पच्चीस श्वासोच्छ्वास (चंदेसु निम्मलयरा) तक का कायोत्सर्ग कर पूर्ण करता है। इसके पश्चात् 'सिद्धस्तव सूत्र" बोलकर श्रुतदेवता के कायोत्सर्ग में एक ‘नमस्कार मंत्र' का चिन्तन कर श्रुतदेवता" की स्तुति बोलता है अथवा सुनता है। इसी प्रकार क्षेत्रदेवता" की आराधना निमित्त उसके कायोत्सर्ग में भी एक 'नमस्कार मंत्र' का चिन्तन कर फिर कायोत्सर्ग पूर्णकर क्षेत्रदेवता की स्तुति बोलता है अथवा सुनता है। उसके बाद पुनः प्रकट में एक 'नमस्कार मंत्र' कहता है। षष्ठ प्रत्याख्यान आवश्यक- फिर संडाशक स्थानों को प्रमार्जित कर तथा नीचे बै ठकर पूर्ववत् ही पच्चीस बोल पूर्वक मुखवस्त्रिका और शरीर की प्रतिलेखना कर द्वादशावर्त करता है। फिर 'इच्छामो अणुसद्धिं' इतना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
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