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15, 17 नवम्बर 2006
जिनवाणी
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देवसिय' इच्चाइदंडगेण सयलाइयारमिच्छामिदुक्कडं दाउं, उट्ठिय सामाइयसुत्तं भणित्तु, 'इच्छामि ठाउ काउसग्ग' मिच्चाइसुत्तं भणिय, पलंबियभुयकुप्परधरिय नाभि अहो जाणुड्ढं चउरंगुलठवियकडियपट्टो संजइकविट्ठाइदोसरहियं काउस्सगं काउं, जहक्कमं दिणकए अइयारे हियए धरिय, नमोक्कारेण पारिय, चवीसत्थयं पढिय, संडासगे पमज्जिय, उवविसिय, अलग्गविययबाहुजुओ मुहणंतर पंचवीसं पडिलेहणाओ काउं, का वि तत्तियाओ चेव कुणइ । साविया पुण पट्ठिसिर - हिययवज्जं पन्नरसे कुणइ । उट्ठिय बत्तीस दोसरहियं पणवीसावस्सयसुद्धं किइकम्मं काउं अवणयंगो करजुयविहिधरियपुत्ती देवसियाइयाराणं गुरुपुरओ वियऽणत्थं आलोयणदंडगं पढइ । तओ पुत्तीए कट्ठासणं पाउंछणं वा पडिलेहिय वामं जाणुं हिट्ठा दाहिणं च उडूढं काउं, करजुयगहियपुत्ती सम्मं पडिकमणसुत्तं भणइ । तओ दव्वभावुट्ठिओ 'अब्भुट्ठिओमि' इच्चाइदंडगं पढित्ता, वंदणं दाउ, पणगाइसु जइसु तिन्नि खामित्ता, सामन्नसाहूसु पुण ठवणायरिएण समं खामणं काउं, तओ तिन्नि साहू खामित्ता, पुणो किइकम्मं काउं, उद्घट्ठिओ सिरकयंजली 'आयरियउवज्झाए' इच्चाइगाहातिगं पढित्ता सामाइयसुत्तं उस्सगदंडयं च भणिय, काउस्सग्गे चारित्ताइयारसुद्धिनिमित्तं, उज्जोयदुगं चिंतेइ । तओ गुरुणा पारिए पारित्ता, सम्मत्तसुद्धिहेउं उज्जोयं पढिय, सव्वलोयअरिहंतचेइयाराहणुस्सग्गं काउं, उज्जोयं चिंतिय सुयसोहिनिमित्तं ' पुक्खरवरदीवड्ढ' कड्ढिय, पुणो पणवीसुस्सासं काउस्सग्गं काउं पारिय, सिद्धित्थवं पढित्ता, सुयदेवयाए काउस्सग्गे नमुक्कारं चिंत्तिय, तीसे थुइ देइ सुणेइ वा । एवं खित्तदेवयाए वि काउस्सग्गे नमुक्कारं चिंतिऊण, पारिय, तत्थुई दाउं सोउं वा पंचमंगलं पढिय संडासए पमज्जिय, उवविसिय, पुव्वं व पुत्तिं पेहिय, वंद दाउ 'इच्छामो अणुसिट्ठि' ति भणिय, जाणूहिं ठाउं वद्धमाणंक्खरस्सरा तिन्निथुई उ पढिय, सक्कत्थयं तं च भणिय, आयरियाई वंदिय, पायच्छित्त-विसोहणत्थं काउस्सग्गं काउं उज्जोय चउक्कं चिंतेइ त्ति । १. दैवसिकप्रतिक्रमण विधि
सर्वप्रथम श्रावक, गुरु महाराज के साथ अथवा अकेला ही 'जावंतिचेइयाई' और 'जावंतकेविसाहू' सूत्र एवं 'स्तुति प्रणिधान सूत्र" को छोड़कर चैत्यादि' का वंदन करता है । फिर चार बार 'खमासमणसूत्र' पूर्वक आचार्य-उपाध्याय-वर्तमान साधु आदि को वन्दन करता है, फिर भूमितल पर मस्तक रखकर 'सव्वस्सवि देवसिय सूत्र" के उच्चारण पूर्वक सकल अतिचारों का मिच्छामि दुक्कडं देता है। प्रथम सामायिक एवं द्वितीय चतुर्विंशतिस्तव आवश्यक- उसके बाद प्रतिक्रमण करने वाला साधक खड़े होकर सामायिक सूत्र बोलता है, फिर 'इच्छामि ठामि काउस्सग्गं" इत्यादि सूत्र को कहकर कायोत्सर्ग करता है । कायोत्सर्ग के समय दोनों भुजाओं को लम्बी कर, कोहनियों से कटिवस्त्र - चोलपट्टा या धोती को पकड़कर रख सके उस प्रकार से नाभि से चार अंगुल नीचे और घुटनों से चार अंगुल ऊपर कटिवस्त्र धारण करता है । कायोत्सर्ग संयति-कपिष्ठ आदि १९ दोषों से रहित होकर करना चाहिए। इस कायोत्सर्ग में दिनकृत अतिचारों को हृदय में धारण (याद)' करता है। उसके बाद 'णमो अरिहंताणं' शब्दपूर्वक कायोत्सर्ग पूर्ण कर
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