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________________ 15,17 नवम्बर 2006 जिनवाणी, 110 प्रतिक्रमण : एक आध्यात्मिक दृष्टि श्री फूलचन्द मेहता मिथ्यात्व मोहनीय के कारण जीव संसार के कार्यों में, विषयभोगों में, आत्मा की विभावदशा में रचा पचा रहता है, जो कि अतिक्रमण की स्थिति है। जैसे ही जीव निज ज्ञान-दर्शनचारित्र में आने की प्रक्रिया को अपनाता है तो वह प्रतिक्रमण की ओर प्रवृत्त होने लगता है । आस्रव से संवर की ओर एवं निर्जरा की ओर जाने में प्रतिक्रमण सहायभूत है । इस प्रकार लेखक ने तात्त्विक दृष्टि से प्रतिक्रमण का विवेचन किया है। -सम्पादक जैन दर्शन में आत्मवाद, कर्मवाद, क्रियावाद, लोकवाद अथवा जीव-अजीव आदि तत्त्वों का, षद्रव्यों का, पंचास्तिकाय का, मोक्षमार्ग व संसार मार्ग का, सत्य-असत्य का, हिंसा-अहिंसा का, धर्मअधर्म का, बन्ध व मोक्ष का, स्वभाव-विभाव का, अस्ति-नास्ति का, स्वचतुष्टय-परचतुष्टय के स्वरूप का , स्वसमय-परसमय इत्यादि का अनेकान्त दृष्टि से जितना सूक्ष्म, गहरा, व्यापक और यथार्थ स्वरूप विश्लेषण मिलता है, उतना अन्य दर्शनों में उपलब्ध नहीं है। निग्गंथे पवयणे अठे अयं परमठे सेसे अणयठे (भगवती २.५) परम अर्थ एक मात्र निर्ग्रन्थ प्रवचन ही है अन्य सभी संसार के विषय-वासना के साधन, कुटुम्ब-परिवार, धन-वैभव, जमीन-जायदाद, सत्कारसम्मान, अधिकार आदि अनर्थ रूप हैं, इनमें सुख मानना मिथ्यात्व है। सम्यक्त्व की निर्मल प्रभा है। यह दृढ़ वज्रमय उत्तम गहरी आधारशिला रूप नींव है। जिस पर चारित्र एवं तप का महान् पर्वताधिराज मेरु सुदर्शन टिका हुआ है। ऐसे महान् रत्न के विषय में अनभिज्ञ रहना मिथ्यात्व है। (नन्दीसूत्र टीका ४.५.९१२) अविद्या, अविवेक व अविचार सघन मूर्छा है। पर वस्तु को भोगने का भाव एकांत पाप है और परवस्तु में एवं उसके भोग में आनन्द या सुख मानना एकांत मिथ्यात्व है। अपने निज चैतन्य स्वरूप में अनंत ज्ञानादि गुणों के वैभव से अपरिचित, अनंत सामर्थ्यवान आत्मा के स्वरूप से अनभिज्ञ और संसार सागर से पार होने में असमर्थता का अनुभव कर्ता तथा परद्रव्य में, जो आत्मा से स्पष्ट भिन्न है जिसकी सत्ता-जाति-लक्षण भिन्न है उसमें यह अज्ञानी जीव मूढ होकर भ्रान्त धारणा से अहंत्व-ममत्व-मूर्छा-अपनत्व-एकत्वबुद्धि कर, उनमें इष्टानिष्ट की बुद्धि कर, रागद्वेषादि भाव कर अनन्त संसार में अनंत जन्म-मरणादि के भयंकर दुःख भोग रहा है और मोहनीय आदि कर्मो का बंध कर रहा है, यह सब इस मिथ्यात्व मोहनीय की कृपा का फल है। जैसा प्रत्येक वस्तु या पदार्थ का स्वरूप है वैसा यथार्थ अनुभव प्रतीति में न लाकर अन्यथा ही स्वरूप समझता है, जिससे ज्ञानी की दृष्टि के माहात्म्य का लक्ष्य ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
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