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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ ४२५
तृतीय युद्ध की चिनगारी उठे उसके पहले ही सभी को जागृत हो जाना चाहिए। वर्तमान स्थिति में भगवान महावीर का यह वाक्य 'अस्थि सत्थं परेण परं नत्यि, असत्थं परेण परं' शस्त्र में प्रतिस्पर्धा है, अशस्त्र में कोई प्रतिस्पर्धा नहीं है। आचारांग बहुत मूल्यवान हो गया है। शस्त्रों की दौड़ को केवल शस्त्रों में कमी करके नहीं रोका जा सकता है। यदि शस्त्रों के प्रसार को रोकना है, भयमुक्त जीवन जीना है तो इस वाक्य पर ध्यान देना होगा।
चंद लोग जो सत्ता पर सवार है उन्हें राष्ट्रीय दृष्टि से नहीं मानवीय दृष्टि से विचारकर प्रलयंकारी अस्त्रों के निर्माण पर रोक लगाना चाहिए। इस दिशा में जो पहल करेगा, वही मानवता का सबसे बड़ा पुजारी होगा।
इस महाविनाश से बचने के लिए अहिंसा का प्रचार प्रसार एक मात्र उपाय है। यही हिंसा से लड़ने का सही तरिका है। वैसे देखा जाय तो शायद कोई भी राष्ट्र हिंसा नहीं चाहता है किंतु हिंसा के कारणों को छोड़ नहीं रहा है साथ ही अहिंसा और शांति की चाह प्रत्येक राष्ट्र को है किंतु अहिंसा के मूल्य को आत्मसात् नहीं करना चाहता है न ही उन्हें अपनाता है। इच्छा कार्य में परिणत न हो तो उस इच्छा का कोई अर्थ नहीं है।
आध्यात्मिक आधार पर विश्वशांति के कुछ सूत्र आचार्य महाप्रज्ञ७६३ ने बताये जो निम्न है -
आत्मौपम्य की भावना का विकास - प्रत्येक प्राणी में आत्मा हैं। हम मनुष्य के सम्बन्ध में विचार करते समय इस सिद्धान्त को प्रस्फुटित करें कि प्रत्येक मनुष्य में आत्मा है। हम मनुष्य की आकृति रंग जाति, संप्रदाय, प्रादेशिकता, राष्ट्रीयता आदि को देखते समय यह न भूलें कि इन सब आवरणों के पीछे छिपा
हुआ एक सत्य है और वह है मानवीय आत्मा। २. राष्ट्रीय या विभक्त भूखण्ड के पीछे रहे हुए अखण्ड जगत की
अनुभूति।
मैत्री और करुणा की भावना का विकास। ४. शस्त्र के प्रयोग की सीमा
७६३. समस्या को देखना सीखें। पृ. ३६ -आचार्य महाप्रज्ञ
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