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४२२ / साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री
करने का है सहायक बनने का है, यह सूत्र लोगों को पर्यावरण की चेतना प्रदान करता है।
पर्यावरण प्रदूषण के इस विश्वव्यापी संकट से बचने के लिए हमें आध्यात्मिक सिद्धान्त अहिंसा तथा अपरिग्रह की दृष्टि को अपनाना होगा। उ. यशोविजयजी ने ज्ञानसार में जो साधना पद्धति बताई है वह असंदिग्ध रूप से एक ऐसी साधना पद्धति है तो प्रकृति के संतुलन में जरा भी बाधक नहीं बनती है। उ. यशोविजयजी ने अहिंसा के सूक्ष्मस्वरूप का वर्णन करते हुए अध्यात्मसार में कहा है कि हिंसा तीन प्रकार की होती है- ( १ ) किसी को शारीरिक या मानसिक पीढ़ा करने से हिंसा होती है । ( २ ) किसी की देह का घात करने से हिंसा होती है । ( ३ ) दुष्ट परिणाम, गलत विचारों से भी हिंसा होती है । ७६० आचार्य हेमचन्द्र ने ही "जिस प्रकार अपने को सुख प्रिय है और दुःख अप्रिय है उसी प्रकार सभी प्राणियों को सुख प्रिय और दुःख अप्रिय है। अतः स्वयं के लिए अनिष्ट ऐसी हिंसा अन्य प्राणियों के संबंध में नहीं करना चाहिए | " ,,७६१ जैनागमों में बिना प्रयोजन के स्थावर जीवों की भी हिंसा का निषेध किया है। आचार्य हेमचन्द्र ने भी कहा है कि " अहिंसा के महत्त्व को समझने वाला स्थावर जीवों की भी बिना प्रयोजन के हिंसा नहीं करते है । ७६२ आचारांग में मनुष्य और प्रकृति को समान गुण सम्पन्न माना है। दोनों जन्मते हैं, बढ़ते हैं, दोनों चैतन्ययुक्त है, दोनों छिन्न होने पर म्लान हो जाते है, दोनों आहार लेते हैं दोनो अनित्य, अशाश्वत है, दोनों अनेक अवस्थाओं को प्राप्त होते हैं, दोनों उपचित- अपचित हैं। इसलिए वनस्पतिकायिक जीव को, प्रकृति को न स्वयं नष्ट करें न दूसरों से नष्ट करावें, न नष्ट करने वालों का अनुमोदन करें।
जैनधर्म अहिंसावादी है अतः इसमें इकोलॉजी या पर्यावरण पर विशेष बल दिया गया है। आज विकास के नाम पर जो प्रकृति का दोहन किया जा रहा है तथा अपनी सुविधाओं के लिए स्वार्थों के पोषण के लिए, भोगविलास के लिए निरपराधी, निराधार मूक प्राणियों की निर्दयतापूर्वक जो हत्याएँ की जा रही है,
७६०. पीड़ाकार्तृत्वतो देहव्यापत्त्या दुष्टभावतः
त्रिधा हिंसागमे प्रोक्ता नहीत्थमपहेतुका ॥ ४१ ॥ - सत्यक्त्वाधिकार, अध्यात्मसार उ. यशोविजयजी
७६१. आत्मवत् सर्वभूतेषु सुःख दुःखे प्रियाप्रिये
चिंतयन्नात्मनोऽनिष्टां हिंसामन्यस्य नाचरेत् || २० | योगशास्त्र २ / २०, आचार्य हेमचन्द्र ७६२. निरर्थकं न कुर्वीत जीवेषु स्थावरेष्वपि
हिंसामहिंसाधर्मज्ञः कांक्षन् मोक्षमुपासकः ।। २१ ।। योगशास्त्र २ / २१
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