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________________ ४१४/ साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री " अपने -अपने कर्म के कारण मनुष्य परवश बना हुआ है और अपने अपने कर्म के फल को भोगने वाला है, ऐसा जानकर मध्यस्थ पुरुष राग और द्वेष को प्राप्त नहीं करता है । ७८२ मध्यस्थ व्यक्ति का दिमाग सन्तुलित होता है। वह कभी तनाव में नहीं रहता है इसलिए प्रायः वह रोगमुक्त होता है । (8) नशा और अपराध एक भीषण समस्या नशा और अपराध आज ये दोनों प्रवृत्तियाँ बरसाती नदी के प्रवाह की तरह तेजी से बढ़ रही हैं। नशे की प्रवृत्ति एक काल्पनिक आवश्यकता है जो आज की भीषणतम समस्या है। नशे और अपराध का गहरा सम्बन्ध हैं। यद्यपि यह तो सम्भव नहीं है कि अपराधी प्रवृत्ति के लिए केवल नशे की प्रवृत्ति को ही उत्तरदायी ठहराया जाय परंतु बढ़ते हुए अपराध में नशा अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर रहा है। जब कुविचार मन में आते हैं तब उसका प्रतिफल कुकर्म के रूप में सामने आता है। मन में पाप रहेगा तो शरीर से भी पाप ही होगा। कुछ लोगों का मानना है कि गरीबी और परेशानी के कारण लोग, चोरी, ठगी, विश्वासघात आदि करने लगते हैं, यह बात एक अंश तक ही सही है। गरीब और दुर्बल आदमी छोटी-मोटी उठाई गिरी कर सकता है परंतु बड़े-बड़े उत्पाद वही करेगा जिसकी भुजाओं में बल है और दिमाग में चुस्ती है । सम्पन्न और सामर्थ्यवान लोगों की आसक्ति और तृष्णाजन्य दुष्प्रवृत्तियाँ ऐसे भयंकर अपराधों को जन्म देती है जिसकी बेचारे गरीब कभी कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। यह सोचना उचित नहीं है कि गरीबी के साथ - साथ अपराधी मनोवृत्ति का भी अन्त हो जायेगा । भौतिक समृद्धि और भोगविलास से भरपूर देशों में गरीब देशों की अपेक्षा अधिक अपराध और नशे की प्रवृत्ति पाई जाती है। सच बात तो यह है कि अपराधी प्रवृत्ति एक प्रकार का मानसिक रोग है जो सत्संग, स्वाध्याय और नैतिक शिक्षा के आध्यात्मिक उपक्रमों के अभाव में पनपता है। सभी देशों में अपराध जिस गति से बढ़ रहे हैं उसे देखते हुए अन्तर्राष्ट्रीय पुलिस संगठन (इन्टरपोल) ने वर्तमान समय को ही अव्यवस्था का युग करार दे दिया हैं। भौतिक और वैज्ञानिक प्रगति में सबसे बढ़ा समृद्ध देश अमेरिका अपराधों की वृद्धि में सबसे आगे है। दूसरा क्रम पिछले युग का सबसे समर्थ साम्राज्यवादी राष्ट्र का है। "पिछले वर्षों संयुक्तराज्य अमेरिका में हर ७८१. माध्यस्थ अष्टक - १६ ७८२. स्वस्वकर्मकृतावेशाः स्वस्वकर्मभुजोनराः - - ज्ञानसार - उ. यशोविजयजी Jain Education International न रागं नापि च द्वेषं मध्यस्थस्तेषु गच्छति - ज्ञानसार १६/४ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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