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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ ४१३
ने 'भगवान महावीर का स्वास्थ्य शास्त्र' पुस्तक में प्रेक्षाध्यान से चिकित्सा की चर्चा की है। उन्होंने कहा है कि रोग का प्रमुख कारण है- प्राणों का असंतुलन, प्राण संतुलित हुआ तो बीमारी मिट जाएगी। प्राण तब संतुलन का एक साधन है दर्शन, अपने पीड़ित अवयव को देखना। जब हम देखना शुरु करते हैं प्राण का संतुलन होता है, अच्छे रसायन पैदा होते हैं एकाग्रता बढ़ती है। स्वास्थ्य के स्थूल लक्षण ये हैं -अच्छी नींद, अच्छी भूख, अच्छा मन, अच्छा चिन्तन और अच्छा भाव। जिसमें ये हैं वह आदमी स्वस्थ्य हैं। अनिद्रा का रोग पूरे विश्व में बहुत फैल गया है। करोड़ो रू. नींद की गोलियों को निर्मित करने में खर्च होते हैं। प्रेक्षा ध्यान का प्रयोग अच्छी नींद के लिए अचूक औषधी हैं-कायोत्सर्ग की मुद्रा में लेटकर अंगूठे से सिर तक की प्रेक्षा का यह प्रयोग नींद का अमोघ प्रयोग है। हमारे शरीर में पैदा होने वाले रसायन ही शरीर को स्वस्थ्य बनाते हैं।
भावों के साथ भी बहुत गहरा सम्बन्ध है हमारे स्वास्थ्य का। क्रोध के प्रबल आवेश से अस्थमा या लकवे की बीमारी हो सकती है। मन की बात कहने का अवसर नहीं मिलता है। वह मन में दबी हुई भावना की बात माइग्रेन पैदा कर देगी। अतृप्ती की भावना है, चिंता है तो भूख कम हो जाएगी। इस प्रकार भाव और बीमारियों का आज के वैज्ञानिकों ने परीक्षण के द्वारा बहुत अध्ययन किया है। कौन सा भाव पैदा हो रहा है इसके प्रति जागरुक रहें। दर्शन की पद्धति अध्यात्म चेतना के जागरण की पद्धति है, चिकित्सा की पद्धति है। इसका सम्यक मूल्यांकन और उपयोग कर हम अनेक शारीरिक एवं मानसिक समस्याओं से मुक्ति पा सकते है। कायोत्सर्ग द्वारा भी रक्त चाप, अनिद्रा, मानसिक तनाव आदि पर काबू पाया जा सकता है। आचार्य महाप्रज्ञ ने हृदय रोग निवारण के कुछ सूत्र बतायें जो महत्त्वपूर्ण है।
(१) अनेकान्त दृष्टिकोण का विकास (२) कायोत्सर्ग (३) प्राण और अपान (४) मंत्र चिकित्सा (५) दीर्घ श्वास प्रेक्षा (६) रंग चिकित्सा।
हृदय रोग के सन्दर्भ में उपयुक्त आध्यात्मिक घटकों पर विचार किया जाए और प्रयोग किये जाए तो हृदय रोग की संभावना को निर्मूल किया जा सकता है। उ. यशोविजयजी ने भी 'अनेकान्त दृष्टि'७८° तथा 'माध्यस्थ भाव'७६१ पर विशेष बल दिया हैं।
७८०. अध्यात्मोपनिषद १/६१- उ. यशोविजयजी
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