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३८४ / साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री
जीव ग्यारह प्रतिमाओं का भी आराधन करता है। प्रतिमा का अर्थ प्रतिज्ञाविशेष, व्रतविशेष, तपविशेष अथवा अभिग्रहविशेष है।
इस गुणस्थान का काल जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से देशोनपूर्वकोटि प्रमाण है। आदि के चार गुणस्थान चारों गतियों के जीवों में होते हैं, किन्तु पाँचवाँ गुणस्थान मनुष्य और तिर्यंचों के ही होता है। तिर्यंचों में भी संज्ञीपर्याप्त पंचेंद्रियतिर्यंच को ही संभव है । जिसने पहले देवायु के अतिरिक्त शेष तीन आयु में से किसी एक का बंध कर लिया हो, ऐसा जीव देशविरत गुणस्थान को प्राप्त नहीं हो सकता है।
६. प्रमत्त सर्वविरति संयत गुणस्थान छठवें गुणस्थान में साधक कुछ और आगे बढ़ जाता है। वह मोह के बादल को बिखेरकर देशविरत से सर्वविरत हो जाता है। साधक पूरी तरह से सावद्य कार्यों से निवृत्त हो जाता है। उ. यशोविजयजी ने षष्ठ गुणस्थानवर्ती साधु के चारित्र का चित्रण करते हुए कहा है“संसाररूप विषम पर्वत का उल्लंघन कर छठवें गुणस्थानक को प्राप्त लोकोत्तर मार्ग में स्थित साधु लोकसंज्ञा में रत अर्थात् प्रीति वाला नहीं होता है । ७४० साधु लोकसंज्ञा से मुक्त होते हैं।
षष्ठ गुणस्थानवर्ती साधक पंचमहाव्रतधारी होते हैं। इस गुणस्थानवर्ती साधक में प्रमाद की सत्ता रहती है, इसलिए इस गुणस्थान का नाम प्रमत्तसंयत रखा गया है। गोम्मटसार में प्रमाद के पन्द्रह भेद बातए गए हैं- "स्त्री कथा, भक्तकथा, चोरकथा, राजकथा, क्रोध, मान, माया, लोभ, पंचेन्द्रिय का असयंम निद्रा, स्नेह ।,,७४१
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प्रमत्तसंयत गुणस्थान की स्थिति कर्मस्तव, योगशास्त्र, गुणस्थान क्रमारोह, सर्वार्थसिद्धि आदि ग्रन्थों में जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त्त कही गई है। अन्तर्मुहूर्त्त के पश्चात् प्रमत्तसंयती एक बार अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में पहुँचता है और वहाँ भी अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त्तपर्यन्त रहकर पुनः प्रमत्तसंयत गुणस्थान में आ जाता है। यह चढ़ाव और उतार देशोनकोटिपूर्व
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प्राप्तः षष्ठं गुणस्थानं भवेऽदिलंघनम् ।
लोकसंज्ञारतो न स्यान्मुनिर्लोकोत्तरस्थिति ।।१ । । लोकसंज्ञात्याग, २३, ज्ञानसार
विकहा कहा कसाया इंदिय जिद्दा तहेव पणयो य
चदुचदुपणमेगेगं होंति पमाया हु पण्णरस - गोम्मटसार, गाथा - ३४ गुणस्थान क्रमारोह, स्वोपज्ञवृत्ति - २७, पृ. २०
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