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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ ३८३
जिस प्रकार सती स्त्री का मन अन्य कार्य करते हुए भी पति में ही रहता है उसी प्रकार काया के अन्य कार्य करते हुए भी सम्यग्दृष्टि का मन सदैव श्रुतधर्म में रहता है, इसलिए आक्षेपकज्ञान के कारण उसके भोग भव के हेतुरूप नहीं होते हैं।
अविरतसम्यग्दृष्टि को दर्शन सप्तक का क्षय, उपशम या क्षयोपशम करना होता है। दर्शनसप्तक, अर्थात् अनंतानुबंध क्रोध, मान, माया और लोभ, मिथ्यात्वमोह, मिश्रमोह और सम्यक्त्वमोह। . इन सात प्रकृतियों का जब क्षय होता है, तब क्षायिकसम्यक्त्व होता है और जब उपशम होता है, तब औपशमिकसम्यक्त्व होता है और जब क्षयोपशम होता है तब क्षायोपशमिक सम्यक्त्व होता है।
“अविरतसम्यग्दृष्टि को तीनों में से कोई भी सम्यक्त्व हो सकता है। आचार्य हरिभद्र ने सम्यग्दृष्टि अवस्था की तुलना महायान के बोधिसत्व के पद से की है।"७३७ ५. देशविरति सम्यग्दृष्टि गुणस्थान - यह आध्यात्मिक-विकास की पाँचवी सीढ़ी है। इस गुणस्थान में जीव प्रत्याख्यानीकषाय के उदय से पापक्रियाओं से सम्पूर्ण निवृत्त तो नही होता है, किन्तु अप्रत्याख्यान का अनुदय होने से वह आंशिक रूप से पाप से विरत होता हैं, अर्थात् वह आंशिक रूप से व्रतों का पालन करता है।
इस गुणस्थान के अपरनाम विरताविरत, संयतासंयत ३८ और देशसंयत भी हैं, क्योंकि इस गुणस्थान पर रहा हुआ जीव सर्वज्ञवीतराग के कथन में श्रद्धा रखता हुआ त्रस जीवों की हिंसा का त्याग करता है, किन्तु बिना प्रयोजन के स्थावर जीवों की हिंसा भी नहीं करता हैं, अर्थात् “त्रस जीवों के त्याग की अपेक्षा से विरत और स्थावर जीवों की हिंसा की अपेक्षा से अविरत होने के कारण विरताविरत आदि नाम दिए गए है।"७३६ श्रावक के बारह व्रतों में से कोई एक कोई दो यावत कोई बारह व्रतों को धारण कर सकता है तथा इस गुणस्थानवर्ती
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७३८.
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योगबिन्दु-२७० षट्खण्डागम-१/१०/१३ जो तसवहाउविरदो अविरदो तहय थावरवहादो एक्क समयम्हि जीवो विरदाविरदो जिणेवकमइ ।।३१। गोम्मटसार
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