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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ ३६३
ध्यान नाम का योगांग प्राप्त होता है।"६६२ योगदृष्टिसमुच्चय में कहा गया है कि सातवीं प्रभादृष्टि में ध्यानदशा, उसका अनुपम सुख, निर्मल बोध, असंग अनुष्ठान की प्राप्ति जीव को होती है, जो अल्पकाल में ही केवलज्ञानादि गुणों को प्रदान करता है। विशिष्ट कोटि के अप्रमत्त गुणस्थानवर्ती तथा क्षपकश्रेणी के काल में वर्तते आत्माओं की इस प्रकार की दृष्टि होती है।५८२
“आँठवीं परा नामक दृष्टि में श्रेष्ठ समाधि प्राप्त होती है और चंद्र की तरह निर्मल बोध होता है। अपने आत्मस्वभाव में ही रहने की प्रवृत्ति इस दृष्टि में होती है।"६६४ क्षपकश्रेणी के गुणस्थानवर्ती साधक को इस प्रकार की दृष्टि होती है।
उपर्युक्त उल्लेख से हम कह सकते हैं कि जघन्य अन्तरात्मा में स्थिरादृष्टि होती है। मध्यम अन्तरात्मा में कान्ता और प्रभादृष्टि होती है तथा उत्कृष्ट अन्तरात्मा में परा दृष्टि होती है, जो परमात्मा अवस्था तक बनी रहती है।
अन्तरात्मा और पुरुषार्थ - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष- इन चारों प्रकार के पुरुषार्थ में जघन्य अन्तरात्मा, अर्थात अविरतसम्यग्दृष्टि में अर्थपुरुषार्थ और कामपुरुषार्थ मुख्य रहता है तथा धर्मपुरुषार्थ और मोक्षपुरुषार्थ गौण रहता है। यह आचार की अपेक्षा से कहा गया है, विचार में तो उसके भी धर्म और मोक्ष पुरुषार्थ की प्रधानता रहती है। मध्यम अन्तरात्मा में पाँचवें गुणस्थान से बारहवें गुणस्थानवर्ती साधक आते हैं। उस दृष्टि से पाँचवें गुणस्थानवर्ती देशविरति श्रावकों में अर्थपुरुषार्थ और कामपुरुषार्थ- दोनों रहते हैं, लेकिन गौण रूप में तथा धर्मपुरुषार्थ और मोक्षपुरुषार्थ की उनके जीवन में प्रधानता रहती है, लेकिन छठवें गुणस्थान से ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती साधकों में धर्म और मोक्ष पुरुषार्थ ही रहता है, अर्थ और काम पुरुषार्थ नहीं होता है।
६६२. अर्कप्रभा सम बोध प्रभा मां ध्यानप्रिया में दिट्ठी। ।।१।।
-प्रभादृष्टि १, आठदृष्टि की सज्झाय-यशोविजयजी सत्प्रवृत्तिपदं चेहासंगानुष्ठानसंज्ञितम्। महापथप्रयाणं य-दनागामिपदावहम् ।।१७५ ।। -योगदृष्टिसमुच्चय -हरिभद्रसूरि दष्टि आठमी सार समाधि. नाम परा तस जाण जी आप स्वभावे प्रवृत्ति पूरण, शशिसम बोध वखाणु जी। - परादृष्टि -८, आठदृष्टि की सज्झाय-यशोविजयजी
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