SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 15
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद / ६ जाते है ? इस पर विवेचनात्मक चिंतन प्रस्तुत किया है। साथ ही भौतिक सुख और आध्यात्मिक सुख की तुलना करते हुए आध्यात्मिक सुख की श्रेष्ठता को सिद्ध किया है। भौतिक जीवन दृष्टि के स्थान पर आध्यात्मिक जीवन दृष्टि के माध्यम से ही विश्व में सुख शांति की उपलब्धि हो सकती है, इस बात पर विशेष बल दिया है। तृतीय अध्याय में अध्यात्मवाद के तात्त्विक आधार आत्मा के स्वरूप पर चिंतन किया गया है। आत्मा के स्वरूप की चर्चा करते हुए उसकी अवधारणा प्रकार, आत्मा के कर्तृत्त्व एवं भोक्तृत्त्व, स्वभावदशा एवं विभावदशा, तथा अंत में अनंतचतुष्टय का वर्णन किया। जैनधर्म विशुद्धरूप से आध्यात्मिक धर्म है उनका प्रारंभिक बिन्दु है आत्मा का संज्ञान और उसका चरम बिन्दु है अत्मोपलब्धि आत्मा को जानने के बाद कुछ जानने योग्य बाकी नहीं रहता है परंतु जिसने इस आत्मा को नहीं जाना उसका वस्तुगत ज्ञान निरर्थक है, यह विचार इस अध्याय में प्रस्तुत किया है। चतुर्थ अध्याय में अध्यात्मवाद में साधक, साध्य और साधना मार्ग का परस्पर संबंध बताया गया है। साधक जीवात्मा और साध्य परमात्मा के स्वरूप पर चिंतन करते हुए जीव जिन साधनों द्वारा अपने आत्मस्वरूप को प्राप्त करता है उन साधनों की चर्चा तथा उनका आत्मा से एकत्व किस प्रकार है अर्थात् साधक और साध्य भिन्न-भिन्न है या अभिन्न आदि प्रश्नों पर विशद विवेचना प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। साथ ही उपाध्याय यशोविजय जी की दृष्टि में योगचतुष्टय - शास्त्रयोग, ज्ञानयोग, क्रियायोग, और साम्ययोग की व्याख्या प्रस्तुत की गयी है। पंचम अध्याय ज्ञानयोग की साधना से संबधित है। इसके अंतर्गत ज्ञान के विभिन्न स्तर एंव प्रकार, शास्त्रज्ञान और आत्मानुभूति में अन्तर पदार्थज्ञान और आत्मज्ञान, आत्मज्ञान की श्रेष्ठता का प्रश्न, ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान का भेदाभेद, अध्यात्म के क्षेत्र में अनेकान्त दृष्टि का स्थान तथा साम्प्रदायिक राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय एंव पारिवारिक संघर्षों की समाप्ति में अनेकान्तवाद की व्यापकता पर विस्तृत प्रकाश डाला गया है। षष्टम अध्याय में क्रियायोग की साधना पर विवेचना प्रस्तुत की है। अनादिकाल से जीव को स्वच्छंदाचार पसंद है। इसलिए जीवन को ज्ञान की बात मीठी लगती है और क्रिया की बात कड़वी लगती है। उपाध्याय यशोविजयजी की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy