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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/७
भूमिका
अध्यात्म का मार्ग ऐसा मार्ग है जो व्यक्तियों की मानसिक, वाचिक एवं कायिक प्रवृतियों का परिष्कार परिमार्जन और अन्ततः परिशोधन कर साधक को परम निर्मल शुद्ध परमात्मा स्वरूप तक पहुँचा देता है। जिसके हृदय में अध्यात्म प्रतिष्ठित है, उसके विचार निर्मल, वाणी निर्दोष और वर्तन निर्दभ होता है। आध्यात्मिक जीवन शैली से ही जीवन में वास्तविक शांति एंव प्रसन्नता प्राप्त होती है। जो केवल भौतिक जीवन में अत्यन्त आसक्त रहते हुए आध्यात्मिक जीवन के आस्वादन से असंस्पृष्ट रहता है वह अधूरा है, अशांत है, दुःखी है।
आज भौतिक विकास की दृष्टि से मानव अपनी चरम सीमा पर पहुँच चुका है। विज्ञान ने अनेक सुख-सुविधाओं के साधन उपलब्ध करा दिए है। लेकिन सारे विश्व में अशांति ज्यों कि त्यों बनी हुई है। हिंसा और आतंक से पूरा विश्व सुलग रहा है। अंतर्राष्ट्रीय संघर्ष, राष्ट्रीय संघर्ष, सामाजिक संघर्ष एंव पारिवारिक संघर्ष में निरन्तर वृद्धि हो रही है। शहरीकरण और औद्योगीकरण की अति के अनेक दुष्परिणाम सामने आ रहे है। विश्व के सामने समस्याओं का अंबार लगा हुआ है। जितनी सुख सुविधाए बढ़ रही हैं। उतनी ही अशाति तनाव व संघर्ष भी बढ़ रहे हैं। उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है कि (सब्वे कामा दुहावह) किसी भी वस्तु की कामना मनुष्य के मन में अंशाति को उत्पन्न करती है। जितनी इच्छाएँ उतना दुःख आज व्यक्ति आवश्यकताओं के लिए नहीं इच्छाओं की पूर्ति के लिए दौड़ रहा है। आवश्यकता पूर्ति तो सीमित साधनों से भी हो जाती है, किंतु इच्छाओं की पूर्ति कभी नही होती है। उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है इच्छाएँ आकाश के समान अनन्त होती है। उनकी पूर्ति होना असंभव है। इच्छाओं के जाल में फंसकर आज व्यक्ति अपनी शांति, संतोष, सुख को भस्मीभूत कर रहा है। एक इच्छा पूरी होने पर दूसरी जागृत हो जाती है। और अशांति का प्रवाह निरंतर बना रहता है। उ. यशोविजय जी ने ज्ञानसार में बहुत मार्मिक बात कही है- “सरित्सहनदुष्पूरसमुद्रोदरसोदर तृप्तिमानेन्द्रियग्रामो, भवतृप्तोऽन्तरात्मना"
हजारों नदियाँ सागर में गिरती हैं, फिर भी सागर कभी तृप्त नहीं हुआ, उसी प्रकार इन्द्रियों का स्वभाव भी अतृप्ति का है अल्पकाल के लिए क्षणिक तृप्ति
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