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साधना की भूमिकाएं७७ होता है, क्यों ? इसका समाधान है कि उनके मस्तिष्क और शरीर की ग्रहणशीलता समाप्त हो जाती है । उनका मस्तिष्क रिसेप्टिव नहीं रहता । उनका शरीर भी ग्रहणशील नहीं रहता । वह बाहरी प्रभावों से अपने आपको बचा लेता है । बाहरी प्रभाव और शरीर के बीच में एक कवच आ जाता है । वे प्रभाव कोई असर पैदा नहीं कर सकते ।
ऐसा व्यक्ति अनावश्यकताओं से सर्वथा मुक्त हो जाता है । उसके जीवन में केवल आवश्यकताएं शेष रहती हैं । उस व्यक्ति के साथ उसी का संपर्क होगा जो आवश्यक है । मूर्च्छा या मोह पैदा करने वाला या भुलावे में डालने वाला संपर्क नहीं होगा । वह किसी भी वस्तु को स्वीकार करेगा तो केवल आवश्यकता के लिए स्वीकार करेगा । उसे शाश्वत संयोग मानकर कभी स्वीकार नहीं करेगा । संयोग उसमें प्रसन्नता पैदा नहीं करेगा और वियोग उसमें खिन्नता नहीं लाएगा । वस्तु के प्राप्त होने और चली जाने में कोई फर्क नहीं होगा । उसमें मात्र आवश्यकता बचेगी, आवश्यकता समाप्त हो जाएगी । शरण-अशरण क विवेक
हम प्रतिदिन पाठ करते हैं- 'अरहंते सरणं पवज्जामि, सिद्धे सरणं पवज्जामि'- मैं अर्हत् की शरण स्वीकार करता हूं । मैं सिद्ध की शरण स्वीकार 1 करता हूं। एक ओर हम यह पाठ करते हैं और दूसरी ओर अशरण की बात करते हैं ! यह विपर्यास क्यों ? शरण की बात करना भी एक सचाई है और अशरण की बात करना भी एक सचाई है । यदि हम अरहंत को अपने से भिन्न मानकर उनकी शरण में जा रहे हैं तो यह एक बहुत बड़ी भ्रांति होगी । हम अरहंत को अपने आत्म-स्वरूप से भिन्न न मानें । हमारा अर्हत् स्वरूप ही हमारे लिए शरण है, और कोई शरण नहीं हो सकता, न महावीर शरण होगा और न कोई दूसरा शरण होगा । इसीलिए शरण - सूत्र में 'अरहंते सरणं पवज्जामि' है किंतु 'महावीर सरणं पवज्जामि' नहीं है । समूचे शरण - सूत्र में शुद्ध आत्मस्वरूप ही शरण है, कोई व्यक्ति शरण नहीं है । एक व्यक्ति शरण देने वाला हो और दूसरा शरण में जाने वाला हो तो शरण देने - लेने वाले का भेद समाप्त ही नहीं होता । महावीर ने अशरण का सूत्र दिया । उन्होंने किसी को शरण नहीं बतलाया । उन्होंने कहा - " असरणं सरणं मन्नमाणे वाले
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