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७८ - जैन योग
लुप्पइ''-अशरण को शरण मानने वाला अज्ञानी मनुष्य नष्ट हो जाता है । शरण कोई है ही नहीं । जो दूसरा है, वह शरण कैसे होगा ? आत्मा का शुद्ध स्वरूप है-अर्हत् । आत्मा का सिद्ध स्वरूप है-सिद्ध | आत्मा का साधक रूप है-साधु । आत्मा का चैतन्यमय रूप है-धर्म । कोई दूसरा शरण नहीं है, अपनी आत्मा ही शरण है । 'नाणं सरणं मे', 'दसणं सरण में', 'चरित्तं सरणं में'-ज्ञान शरण है, दर्शन शरण है, चारित्र शरण है ।
ज्ञान, दर्शन और चारित्र (वीतरागता) की त्रिपुटी है-अर्हत् । ज्ञान, दर्शन और चारित्र की त्रिपुटी है-सिद्ध । ज्ञान, दर्शन और चारित्र की त्रिपुटी साधना है-साधु ।। ज्ञान, दर्शन और चारित्र की त्रिपुटी का आचरण है-धर्म ।
वे सब आत्मा से भिन्न नहीं हैं । हम इस भ्रांति को तोड़ दें कि हम किसी दूसरे की शरण में जा रहे हैं । हम अपनी ही शरण में जा रहे हैं, अपने अस्तित्व की शरण में जा रहे हैं ।
जो व्यक्ति इन अनुप्रेक्षाओं का, इन स्वस्थ चिंतनों का अनुसरण करता है वह असामाजिक नहीं होता, अव्यावहारिक नहीं होता | व्यवहार में जितना परिष्कार आता है, समाज में जितना सुधार, क्रांति और भलाई आती है, वह ऐसे व्यक्तियों के द्वारा ही आ सकती है । मूर्छा में रहने वाले समाज का सुधार नहीं कर सकते, समाज की भलाई नहीं कर सकते और वे सामाजिक क्रांति भी नहीं कर सकते । वे समाज को उन्नति के शिखर पर नहीं ले जा सकते । वे कैसे ले जाएंगे ? जिस व्यक्ति में पदार्थ के प्रति सघन मूर्छा है, जो पदार्थ को नित्य मानता है, वह पदार्थ के लिए इतने संघर्ष करता है कि वह सूमचे समाज को लड़ाई में ढकेल देता है । जिस व्यक्ति में केवल सामाजिकता का ही संस्कार है, समुदाय का ही संस्कार है, वह समुदाय के साथ इतना अंधा होकर चलता है और वह सोचता है कि जो सब को होगा, वह मुझे होगा । यह सामुदायिकता एक सघन अंधकार में ले जाने की दिशा बन जाती है । जो व्यक्ति दूसरों में ही अपना त्राण और शरण खोजता है वह अपने आप में शून्य हो जाता है । यह सोचता है-यह मुझे बचा लेगा। वह दूसरों के पीछे-पीछे चलता है | वह स्वयं कभी अपने पैरों पर खड़े होने
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