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________________ ७६ - जैन योग हैं, सत्य है अकेलापन । इस प्रकार जो व्यक्ति तीन या छह महीने तक अन्यत्व, एकत्व, अनित्यत्व, अशरणता आदि का अभ्यास कर लेता है, वह मानसिक विकृतियों से मुक्त होकर स्वस्थ चिंतन करने वाला, स्वस्थ व्यक्तित्व वाला बन जाता व्यवहृत सचाइयों का आश्रयण किंतु साधना के बिना ऐसा हो नहीं सकता | व्यक्ति चाहे हजार बार अन्यत्व की बात सुने या हजार बार उसकी रटन लगाए, बिना अभ्यास के वह घटित नहीं होगा जो होना चाहिए । एक संस्कार को मिटाने के लिए दूसरे संस्कार का निर्माण जरूरी होता है । नौका तभी छूटती है जब व्यक्ति तट पर पहुंच जाता है । तट पर पहुंचे बिना नौका नहीं छोड़ी जा सकती । सभी दुःखों से मुक्त होने के लिए शरीर को छोड़ना होता है, किंतु जब तक आत्मा का पूरा प्रकाश उपलब्ध नहीं हो जाता तब तक शरीर को भी नहीं छोड़ा जा सकता । जब तक मिथ्या संस्कार समाप्त न हो जाएं तब तक अच्छे संस्कारों को नहीं छोड़ा जा सकता । भ्रांतियों के जाल को समाप्त करने के लिए कुछ व्यवहृत सचाइयों का सहारा लेना ही पड़ता है । ग्रहणशीलता की समाप्ति जब तक अनित्यता, एकत्व या अशरणता संस्कार नहीं बन जाता, तब तक मानसिक विकृतियों से छुटकारा नहीं मिल सकता | इस संस्कार के बनने पर कुछेक विशेष निष्पत्तियां होंगी । जब ये संस्कार पुष्ट हो जाएंगे तब मस्तिष्क की एक दिशागामी ग्रहणशीलता समाप्त हो जाएगी । आज का प्रत्येक प्राणी संक्रमण का जीवन जीता है । वह बाहर को प्रभावों के ग्रहण करता है । इस संक्रमण को नहीं रोका जा सकता । किंतु जो व्यक्ति स्वस्थ चिंतन से अपने आपको कवचित कर लेता है, कवच पहन लेता है, वह बाहरी संक्रमणों और प्रभावों को रोक सकता है । बड़े-बड़े साधक साधना काल में नग्न रहकर अनेक प्रकार के शारीरिक कष्टों को सहन करते हैं । अनेक रोगों के लिए उनका शसैर अनुकूल होता है, फिर भी वे उन रोगों से अक्रांत नहीं होते । प्रश्न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002746
Book TitleJain Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size10 MB
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