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साधना की भूमिकाएं - ७५ को त्राण मान लेता है और जब उससे त्राण नहीं मिलता तब बेचैनी पैदा होती
है।
स्वार्थ और त्राण
दो व्यक्तियों को जोड़ने वाला सूत्र है-स्वार्थ । एक का दूसरे से हित सधता है, एक दूसरे के काम आता है, तब तक एक दूसरे को त्राण मान लेता है | स्वार्थ का धागा जब टूट जाता है, तब वह सोचता है-'अरे ! यह क्या ! मैंने उसे त्राण मान रखा था, एक सहारा मान रखा था, आलंब मान रखा था, वह मेरे से सर्वथा अलग हो गया।' ऐसा सोचते ही वह वेदना का अनुभव करने लग जाता है। यदि प्रारंभ से ही यह सचाई स्पष्ट हो कि संसार में कोई किसी का त्राण नहीं होता तो फिर कष्ट की अनुभूति नहीं होती । अनित्य अनुप्रेक्षा
त्राण अपने आप में है । अपने पास अपना साथी है-चैतन्य । यदि हम अकेले रहें और अपने साथी को न भूलें, अपने त्राण में रहें, अपनी शरण में रहें तो मनसिक विकृतियां कम हो जाती हैं । बहुत सारी पीड़ा जो व्यर्थ ही भोगनी पड़ती है, वह समाप्त हो जाती है । किंतु यह कोई तत्त्वज्ञान की बात नहीं है, केवल जानने की बात नहीं है, यह अनुभव में उतारने की बात है । यदि हम केवल जान लें कि मैं अकेला हूं, सब-कुछ अनित्य है, कोई त्राण नहीं है तो इससे कुछ भी घटित नहीं होगा, समस्याओं से छुटकारा नहीं मिल पाएगा, कठिनाइयां कम नहीं होंगी । जब हम इन सारी बातों को साधना के द्वारा अनुभव में अवतरित कर देते हैं, तब हम व्यर्थ की पीड़ा से बच जाते हैं।
महावीर ने छह महीने तक अनित्य अनुप्रेक्षा का अभ्यास किया था । अकेले व्यक्ति को यदि तीन महीने तक एक कोठरी में बंद कर दें और वह यह सोचता रहे कि 'मैं अकेला हूं' तो तीन महीने के बाद जब वह बाहर आएगा तो वह इतना बदल जाएगा कि बाहर की दुनिया उसे झूठी प्रतीत होने लगेगी । वह सोचेगा-सब-कुछ झूठ ही झूठ है । जो लोग अपने सबंधों की चर्चा करते हैं, वह सब असत्य है । संसार में होने वाले संबंध सत्य नहीं
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