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७४ - जैन योग
कहना नहीं माना तो व्यक्ति को इतनी वेदना नहीं होती । बेटे ने बात नहीं मानी, पत्नी ने बात नहीं मानी तो मन अत्यधिक दुःखी हो जाता है, तीव्र वेदना हो जाती है । चिंतन आता है कि मैंने इसे पाला-पोसा, मैंने इसके सुखदुःख में साथ दिया, और वही मेरी बात को मानने से इन्कार कर गया । बस, उसकी उत्तेजनाएं एक साथ घनीभूत हो जाती हैं । जहां व्यक्ति ने दूसरों में अपनत्व का आरोपण किया, उसने हजारों समस्याएं को जन्म दे डाला । दोनों बातें मानकर चलें-सचाई को सचाई माने और व्यवहार को व्यवहार मानें । समाज में यदि जीना है तो समाज के व्यवहार को भी निभाना होगा । किंतु व्यवहार की ओट में छिपी हुई वास्तविकता को कभी नहीं भुलाना चाहिए । 'मैं अकेला हूं'-यह एक सचाई है । 'मैं एक सामाजिक प्राणी हूं'-यह हमारा व्यवहार है, अपेक्षा है, सापेक्षता है । सापेक्षता सचाई नहीं है, फिर भी सामाजिक प्राणी को उसे स्वीकार करना होता है । सचाई केवल यही है-मैं अकेला हूं । जो व्यक्ति इन दोनों बातों को मानकर चलता है, उससे समाज का व्यवहार भी नहीं टूटता और वह अपने आपको हजारों समस्याओं से उबार भी लेता है । जो व्यक्ति शाश्वत को विस्मृत कर, अशाश्वत को शाश्वत जैसा मान लेता है, उसे बहुत कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है । संयोग को उसने शाश्वत मान लिया । मूर्छा इतनी घनीभूत हो गई कि उसने अशाश्वत में शाश्वत का आरोपण कर डाला | चाहे पदार्थ हो या व्यक्ति, उसने सबको शाश्वत मान लिया । संसार का यह सार्वभौम नियम है कि योग का वियोग होता है । अनचाहे भी वियोग होता है । जब वियोग होता है तब वेदना होती है । कुछ ऐसे व्यक्ति होते हैं जिनमें मूर्छा इतनी प्रगाढ़ होती है कि पदार्थ के चले जाने पर वे वर्षों तक रोते रहते हैं, शोक करते हैं । यह सारा होता है अशाश्वत को शाश्वत मान लेने के कारण । उस व्यक्ति ने एक भ्रांति को पाल रखा है और इसलिए वह वेदना का अनुभव करता है । वह सारा भ्रान्तिजनित कष्ट है । जो असत्य उसने पाल रखा है, उसकी पुष्टि के लिए सारा "हो रहा है । यदि सचाई का बोध स्पष्ट हो, यदि सचाई की अनुभूति हो तो
वह कभी ऐसा नहीं कर सकता । उसका चिंतन होगा-संसार का जो सार्वभौम नियम है उसे बदला नहीं जा सकता, टाला नहीं जा सकता । मनुष्य अत्राण
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