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७२ - जैन योग
टूट जाती हैं । वह अपने आप को पाता है कि मैं अकेला हूं, कोई भी मेरा नहीं है । जितने योग हैं, जो कुछ मुझे प्राप्त है, वह सारा अनित्य है, अशाश्वत है । चारों ओर अत्राण ही अत्राण है । कोई त्राण देने वाला नहीं है । इस सचाई के प्रकट होने पर आदमी बिलकुल बदल जाता है । उसे चारों ओर से असत्य ही असत्य दिखाई देता है । एक का क्या मूल्य ?
आप सोच सकते हैं कि यह सब अव्यावहारिक बातें हैं । इस चिंतन से क्या कोई परिवार चलेगा ? क्या कोई समाज चलेगा ? क्या कोई राष्ट्र चलेगा? यदि सब आदमी अपने को अकेल ही अकेले अनुभव करें तो क्या समुदाय बन पाएगा ? क्या कोई समष्टिगत कार्य हो सकेगा ? क्या कोई शक्ति का निर्माण हो पाएगा? शक्ति का निर्माण तब होता है जब दो मिलते हैं, दो का योग होत है | योग होता है तब मकान बनता है | योग होता है तब वस्त्र बनता है । एक अकेला तंतु वस्त्र नहीं बनता । वह नग्नता को ढांकने में समर्थ नहीं होता । न वह सर्दी और गर्मी से बचाने में सक्षम होता है, अकेले तंतु की कोई कीमत नहीं होती । जब तंतु मिलते हैं, उनका परस्पर योग होता है तब वस्त्र बनता है जो नग्नता को ढांकने में, सर्दी और गर्मी से बचाने में सक्षम होता है । जहां संगठन होता है, मिलन होता है, समुदाय बनता है, वहां शक्ति पैदा होती है । समाज की सारी शक्ति समुदाय पर निर्भर होती है । समुदाय होते ही शक्ति पैदा हो जाती है । अकेले में कुछ नहीं होता | दो में संघर्ष
व्यवहार के धरातल पर यह चिंतन उभरता है और ऐसा लगता है कि अकेलेपन की बात सर्वदा अव्यावहारिक और असामाजिक है । ऐसा लग सकता है । व्यवहार का अर्थ ही होता है-स्थूल | जब व्यक्ति स्थूल भूमिका पर खड़ा रहकर सोचता है तब वह ऐसा ही सोच पाता है । ऐसा सोचना, उस भूमिका की दृष्टि से त्रुटिपूर्ण नहीं है । यह सच है कि एक ईट से कभी मकान नहीं बनता है । यह कहावत भी सच है कि ईंट से ईंट बजती है । जहां दो मिलते हैं वहां शक्ति पैदा होती है । जहां दो मिलते हैं वहीं संघर्ष
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