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साधना की भूमिकाएं - ७१ पर की जो मान्यता बना रखी थी वह भ्रम भी टूट गया । अब स्पष्ट बोध हो गया कि कोई 'स्व' नहीं है । जब शरीर भी 'स्व' नहीं है तो दूसरा पदार्थ 'स्व' कैसे होगा ? जब कोई भी 'स्व' नहीं है तो कोई 'पर' कैसे होगा ? यह 'स्व' और 'पर' की रेखा ही समाप्त हो जाती है अर्थात् सब कुछ ‘पर ही पर' है, 'स्व' कुछ है ही नहीं । और यह भाषा भी समाप्त हो जाती है कि 'पर' कुछ है ही नहीं । जब 'स्व' ही नहीं है तो 'पर' कैसे होगा? कोई 'स्व' हो तो किसी को 'पर' माना जाए | कोई अपना हो तो दूसरे को पराया माना जाए । 'स्व' और 'पर' का चिंतन ही समाप्त हो जाता है । अकेला, केवल अकेला । वह अपने आपको केवल अकेला ही देखता है। सचाई का अनुभव
जब एकत्व की अनुप्रेक्षा, एकत्व का अनुचिंतन स्थिर होता है, पुष्ट होता है, तब नया चिंतन उभरता है-मैं अकेला हूं । शरीर मेरा नहीं है । कोई भी पदार्थ मेरा नहीं है । कोई भी व्यक्ति मेरा नहीं है । सब कुछ अजित्य है । यह सारा संयोग है । शरीर के साथ चैतन्य का संयोग है । शरीर के साथ दूसरे पदार्थों का संयोग है, दूसरे व्यक्तियों का संयोग है । वह भी अनन्तर नहीं, परंपर । अव्यवहित नहीं, व्यवहित । बीच में व्यवधान है | चैतन्य के बीच में है शरीर और शरीर के बाद है कोई व्यक्ति या पदार्थ । यह सब योग है। जहां योग है वहां वियोग है। जो योग है वह निश्चित ही अनित्य है। योग कभी नित्य नहीं हो सकता | अनित्य की अनुप्रेक्षा स्पष्ट होती है, तब अनित्य भी अनुभव बन जाता है । जब अनित्य अनुभव बन जाता है तब उसमें से आलोक की एक किरण निकलती है । ___मनुष्य ने पहले मान रखा था कि पदार्थ कभी काम आयेगा, शरण देगा, त्राण देगा । मनुष्य ने मान रखा था कि परिवार त्राण देगा। मित्र त्राण देगा। अब वह सोचता है-'ये सब स्वयं अनित्य हैं । ये सब मेरे जैसे हैं, स्वयं अत्राण हैं । फिर भला मुझे कैसे त्राण देंगे ?' यह त्राण की भ्रांति टूट जाती है । शरण की भ्रांति टूट जाती है । इससे अशरण का चिंतन स्पष्ट हो जाता है | अन्यत्व से एकत्व, एकत्व से अनित्यत्व और अनित्यत्व से अशरणत्व-यह बोध स्पष्ट हो जाता है । एक के बाद दूसरी सचाई उभरती है और सारी भ्रांतियां
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