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अन्तर्दृष्टि (३)
एकत्व अनुप्रेक्षा
जब अंतर्दृष्टि जागती है तब नई ज्योति मिलती है; ज्योति की अनेक रश्मियां चारों ओर फूट पड़ती हैं। मनुष्य आलोक से भर जाता है । अंधकार के सारे बिम्ब समाप्त हो जाते हैं । उस व्यक्ति को कोई समस्या प्रतीत नहीं होती, कोई उलझन प्रतीत नहीं होती । वह सर्वत्र समाधान ही समाधान देखता है। जहां दूसरा मनुष्य अपने को समस्याओं से घिरा पाता है वहां ज्योतिर्मान् मनुष्य अपने समाधान से संकुल पाता है । जब आत्मा और शरीर का भेद स्पष्ट हो जाता है, अन्यत्व की अनुप्रेक्षा अनुभव में उतर आती है तब पहली बार उसे अनुभव होता है कि 'मैं अकेला हूं।' एकत्व की अनुप्रेक्षा, एकत्व का चिंतन फूट पड़ता है । वह सोचता है - 'मैं अकेला हूं | जब शरीर भी मेरा नहीं है तब दूसरा फिर मेरा कौन होगा ? मैंने जिसे स्वजन मान रखा है, वह मेरा कैसे होगा ? यह दूर की बात है । मेरे सबसे निकट है - शरीर । जब शरीर भी मेरा नहीं है तब वह (स्वजन ) मेरा कैसे होगा ? वह स्व कैसे होगा ? वह भी तो पराया ही है ।' जब परत्व की बुद्धि जागी तो एक भ्रम और भाग गया । जिसको स्व माना या उसके प्रति राग संचित कर रखा था और जिसे स्व नहीं माना, पर माना, उसके प्रति द्वेष संचित कर रखा था । पराए के प्रति कोई राग नहीं होता। जो अपना है, उसके प्रति राग होता है । स्व और
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