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साधना की भूमिकाएं - ६९ तर्क की दृष्टि से न देखें, साधना की दृष्टि और अनुभव की दृष्टि से देखें । शैक्षणीय और करणीय
जिसने कायोत्सर्ग किया उसने साधना की भूमिका पर आकर ही किया। जिसकी अंतर्दृष्टि खुली, वह साधना की भूमिका पर ही खुली । उसने साधना के द्वारा ही यह समझा कि आत्मा भिन्न है और शरीर भिन्न है । तर्क के द्वारा समझा हुआ व्यक्ति इस भूमिका पर नहीं पहुंच सकता ।
दो बातें हैं-एक है शैक्षणीय और एक है साक्षात् करणीय । शैक्षणीय बातें आगम से, शास्त्र से, गुरुमुख से या परम्परा से सीखी जाती हैं । बहुत से लोगों ने 'आत्मान्यः पुद्गलश्चान्यः'-आत्मा अन्य है और पुद्गल अन्य है-इसे रट रखा है। किंतु जब उनका शरीर कष्टों से आक्रांत होता है तब वे इस सिद्धांत को बिलकुल भूल जाते हैं। ऐसी स्थिति में वह सिद्धांत विफल हो जाता है । यह तो विफल होगा ही । उसने तो केवल यह सिद्धांत रट रखा है, इसे केवल शैक्षणीय मान रखा है । इसकी एक सीमा होती है । पहलेपहल कोई बात शैक्षणीय होती है, मान ली जाती है, उधार ली जाती है | किंतु उधार को सदा उधार ही बनाए रखें, यह नहीं होना चाहिए । उधार को चुकाना पड़ता है, अपना कुछ अर्जित करना पड़ता है | हम शैक्षणीय को साक्षात्करणीय बनाएं । हम उसे अनुभव में उतारें कि आत्मा भिन्न है और शरीर भिन्न है । ऐसा होने पर ही यथार्थ घटनाएं घटित होने लगेंगी।
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